मैं अब तोड़ना चाहती हूँ
उस अनवरत संवाद को
जो तुम्हारी अनुपस्थिति में
हुआ है तुमसे लागातार
क्योकि
अब ये मुझे तोड़ने लगा है
बाहर आना है इस भ्रम से
कि तुम हो
बस, याद रखनी वही बातें
जो रुबरू कभी हुई थी
याद रखने है
जीवन के वही पाठ
जो तुमसे सीखे
या तुम्हारे
साहचार्य ने सिखाये
जब तुम नहीं हो तो
स्वीकार करना
और जब हो, तो
टिमटिमाते उन तारों को देख मुस्कुराना
साफ आसमान में
उस चाँद के दाग देखना
और
मन ही मन बुदबुदाना
स्पष्टता ही जीवन है
और
ये स्पष्ट है कि
तुम्हारा होना क्षणिक है, जबकि
न होना शाश्वत
शुक्रिया.....
तुम्हारा न होना भी
मुझे कितना कुछ सिखाता है
बस, इस न होने के होने को
हमेशा साथ पाऊँ
टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-02-2020) को 'सूरज कितना घबराया है' (चर्चा अंक - 3600) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
वाह!!!