हल्की गुलाबी ठंड वाली शाम के बाद की रात थी उस दिन.....
नहीं, रात नहीं... शायद शाम की बत्ती का समय था।
पूजा किचन में गयी, क्या बनाऊँ ?
कुछ समझ न आया तो बाहर सोफे पर आकर पसर गयी। कभी कभी उस पर आलस बहुत हावी हो जाता है और उस दिन वो ऐसे ही मोड में थी।
अचानक फोन की घंटी बजी। उसने फोन हाथ में लिया और देखा तो एक नाम स्क्रीन पर आ रहा था। वो नाम यूँ तो सेव शायद हमेशा से ही था लेकिन कॉल लिस्ट में पहली बार उभर कर आया था ।
कभी कभी हमे पता ही नहीं होता कि कौन कौन हमारी कॉंटॅक्ट लिस्ट में है क्योकि कॉल लिस्ट सामान्यता चुनिंदा नामों से ही भरी रहती है और अक्सर उन्ही पर फिंगर प्रेस कर हम कॉल बैक कर लेते है। बहुत कम बार हमे कॉन्टेक्ट लिस्ट देखनी पड़ती है लेकिन जब अनायास ही ऐसे कॉल आते है और स्क्रीन पर नाम अपीयर होता है तो मन में शायद खुशी भी होती है कि हमने इन्हे सेव रखा हुआ है।
पूजा ने बहुत सहजता से फोन पिक किया और सहज आवाज में बात की। लगभग एक घंटा बात हुई। पूरी बातचीत में पूजा के चेहरे के भाव लगभग स्थिर रहे।
घंटे भर बाद जब उसने फोन रखा तो दिल में जैसे यादों का बवंडर था । उसका मन उसे लगभग दो दशक पीछे.....नहीं, उससे भी थोड़ा पीछे खिंचकर ले गया। जहाँ वो एक नवविवाहिता के रुप में ही खुद को देख रही थी । पुरी भीड़ जुटी थी उसके इर्दगिर्द और सब बस उसे ही देखे जा रहे थे। उसे लग रहा था कि जैसे उसका कोई जुलूस निकाला जा रहा हो। चेहरे पर इन भावों को छुपाये वो पूरी तन्मयता से एक एक थाली को बिना आवाज के उठाने की कोशिश कर रही थी । उसे हास्यास्पद भी लग रहा था कि थालीयों के टकराने की आवाज भावी झगडों का कारण बन सकती है । खैर.....उसने हौले हौले बिना आवाज किये थालीयों को सफलतापूर्वक एक के ऊपर एक रख ये टास्क पूरा किया और स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाई।
अब उसे मुहं दिखाई की रस्म के लिये एक कमरे में बैठा दिया गया। परिवार और पास पड़ौस की औरतें आती और उसे उपहार में पायल या साड़ी जैसा कुछ थमा जाती। धीरे धीरे ये औपचारिकता भी निपट गयी और सिर्फ परिवार के सदस्य ही रह गये । उसने महसूस किया कि यहाँ दो गुट से बने हुए है । एक गुट उससे सामान्य रुप से मिलता है जबकि दूसरा गुट थोड़ा खुन्नस में है । वो सभी से एक ही भाव से मिलती है लेकिन दूसरे गुट के कुछ सदस्यों का उपहार के समय दिया आशीर्वाद भी जैसे तंज वाले टोन में था। वो कुछ समझ नहीं पायी और समझने की कोशिश भी नहीं की।
समय गुजरता रहा....वो गृहस्थी में रम गयी। परिवार के दो गुट अब उसे अच्छे से समझ आने लगे । कभी कभी गुटबाजी दम भी तोड़ने लगती और सहज वार्तालाप भी होने लगा। थोड़ी बहुत सहजता के बावजूद भी वो अपने प्रति किसी सदस्य विशेष की बेरुखी कभी समझ नहीं पायी और साल दर साल वो इस बेरुखी से भी सहज होने लगी। उसने कभी कारण का पता भी नहीं किया क्योकि हर बार कार्य और कारण में संबंध हो , ये जरुरी नहीं होता।
अचानक डोरबैल रिंग हुई और पूजा की तंद्रा टूटी। उसने दरवाजा खोला....बच्चे आ गये थे और वो किचन में उनके खाने का जुगाड़ करने लगी।
वो अब भी समय के बहाव को देख रही थी कि वक्त कब किस तरह बदल जाता है कोई नहीं कह सकता । आज जिसका फोन था, ये वही दूसरे गुट का सदस्य था जिससे उसने सबसे ज्यादा बेरुखी महसूस की थी । उन्हे किसी सलाह की जरुरत थी और इसके लिये उन्होने पूजा का चयन किया। अपनी निजी बाते उसे बतायी इस विश्वास पर कि वो उन्हे खूद तक रखेगी। पूजा इस फोन से न खुश थी , न उदास और न ही भाव विभोर । वो उनके प्रति हमेशा से ही सामान्य थी इसलिये जो उसे उचित लगा वो सलाह उन्हे दी।
वो गुजर चुके समय के साथ सब बदलता देख पा रही थी। वो देख रही थी कि समय न सिर्फ खूद बदलता है बल्कि अपने साथ लोगों को, विचारों को, सोच को और यहाँ तक की भावों को भी बदल देता है। बीस तीस साल पहले जिस चीज पर हम अड़े होते है , आज उसी चीज के हमारे लिये कोई मायने नहीं होते। जो बात हम आज बोलते है आगे के बीस साल बाद शायद वो बात ही अस्तित्व में न रहे । समय की इसी राह पर चलते हुए पूजा ने आज फिर एक महत्वपूर्ण सबक सीखा और हर बार की तरह खूद की पीठ थपथपाई और मुस्कुराहट के साथ जिंदगी शुक्रिया कहा।
टिप्पणियाँ
सुंदर प्रस्तुति।
बहुत ही सुन्दर सृजन।