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लौ बाकी रखना

जब बच्चें आँगन छोड़ सात समंदर पार चले जाते है.......
बस, ऐसे ही समय के जज्ब़ात है ...जिन्हे शब्दों में पिरोया है






अपनी मिट्टी छोड़कर....तुम
किसी और जमीं की महक लेने जा रहे हो 
जाओ.....
उस जमीं के साथ
एक खुला, नया सा आसमां
तुम्हारी उड़ान देखने तत्पर है
हर नयी चीज तुम्हारी राह में है
नयी सुबह, नयी शाम
एक नया सा सूरज
कुछ चमकते सितारें
तुम्हारे इंतजार में है
कुछ मिलते जुलते हाथ
साथ चलते कांधे
नयी दुनिया की कुछ नयी सी बाते
इन सब से तुम गर्मजोशी से मिलना
हाथ न बढ़े गर 
तो हाथ तुम बढ़ाना
हर चीज जानना, समझना, सीखना
उस शहर के लिये तुम
नवजात हो
नवजात की तरह ही 
धीरे धीरे चलना सीखना
दौड़ने की जल्दी मत करना
दौड़ने के पहले
चलना पड़ता है
और चलने के पहले
एक एक कदम साधना पड़ता है
लड़खड़ाने से कभी मत डरना
डगमगा कर ही सही , पर आगे बढ़ना
अपने नन्हे कदमों से 
एक नया आकाश मापना
लेकिन याद रखना
आसमा को छूने के लिये
अपनी जमीं 
अपनी जड़े मत खोना
अपनी विरासत
अपने नैतिक मूल्यों को सहेजे रखना
अपने नथुनों में 
अपनी मिट्टी की खुशबू बाकी रखना
अपनी जड़ों की पकड़ मजबूत रखना
बरगद की तरह फैलना
खूल कर जीना
लंबी उड़ान भरना
अपने सपनों को सच करना
और सुनो
थक जाओ गर 
तो बेझिझक लौट आना
सपनों को जेब में भर लाना
नयी मिट्टी की खुशबू सहेज लाना
बस, जीवन का हर पल जीकर आना
कोई गिला साथ मत लाना
जो भी होगा 
तुम्हारे लिये बेहतर होगा
बस, 
एक सर्व शक्तिमान पर विश्वास रखना
अपनी इच्छाशक्ति को जगाये रखना
सहूलियत में समझौते मत करना
कठिन परिश्रम के तप से
अपनी राहों को दैदिप्यमान रखना
तुम अपनी लौ बाकी रखना

टिप्पणियाँ

Rohitas Ghorela ने कहा…
गीता सार से प्रभावित ये रचना बेहद अच्छी है।
जो हुआ अच्छा हुआ
जो होगा वो भी अच्छा होगा।
मेहनत और कर्म किये जाओ।
yashoda Agrawal ने कहा…
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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