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आर्टिकल 15

कल आर्टिकल 15 देखी....मनोरंजक फिल्मों से बहुत अलहदा, यथार्थवादी फिल्म। पूरी फिल्म झंझोड़ कर रख देती है...फिल्म के संवाद तमाचे से मारते है....कितने ही दृश्यों में मुझे अपनी आँखों में कुछ पिघलता सा लगा। हालांकि यह पोस्ट कोई फिल्म समीक्षा नहीं है लेकिन फिर भी बौद्धिकता और तार्किकता रखने वाले हर दर्शक को यह फिल्म देखनी चाहिये।
हम जैसे मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगो के लिये बहुत आसान होता है अपने ड्रॉइंग रुम में बैठकर 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन देशभक्ति के स्टेटस अपडेट करना....हमे अपने देश पर गर्व होता है क्योकि हमने प्रतिकूल परिस्थितिया देखी ही नहीं होती है....हमे जातिगत भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा.....हमारे लिये दुनिया अच्छी है, देश अच्छा है....मैं भी हर बार हैशटैग करती हूँ "लाइफ इज ब्युटीफुल"।

हमारी जिंदगी खुबसूरत होती है हर बार। जब हम अखबार में किसी देहात की किसी बच्ची के गैंग रेप की घटना पढ़ते है तो हम परेशान होते है क्योकि हमारी संवेदनशीलता अभी मरी नहीं है .....लेकिन हफ्ते भर में वो घटना किसी दुसरी ऐसी ही घटना को अपनी जगह दे देती है.....गाँव बदल जाता है, बच्ची बदल जाती है और वो दरिंदे भी, हमारी संवेदनशीलता फिर रोष में आ जाती है लेकिन फिर धीरे धीरे ऐसी खबरों की हमे आदत हो जाती है, जो कि निसंदेह खतरनाक है ।
       कभी कभार कुछ खबरें आती है कि गटर की सफाई करते कर्मचारियों की मृत्यु हुई और उन बेचारों को तो मोमबत्तियां भी नसीब नहीं होती, बस, अखबार के एक कोने में एक दिन की खबर बनते है दुसरे दिन रद्दी बन जाने के लिये। फिल्म में ऐसे ही सफाई कर्मचारी का गटर साफ करते एक दृश्य है।जिसे देखकर मेरी आत्मा हिल गई, आँखों से कब पानी बहने लगा पता ही न चला। पूरी फिल्म के कितने ही संवाद आपको आपके भारत और उनके भारत की हकीकत बतायेंगे....कितने ही दृश्य देखते हुए आपको प्रयास करना पड़ेगा अपनी आँखों को बहने से रोकने के लिये।
     फिल्म की शुरुआत जिस भोजपुरी गाने से होती है, वो मैंने पहले भी सुना है.....ध्यान से गीत का मर्म समझते हुए सुने तो एक एक लाइन मन मस्तिष्क और आत्मा को झकझोर देती है।

      थियेटर के बाहर निकलते समय शायद दर्शक यह सोच रहा होता है कि यह कौनसे युग का भारत है ? जातिगत भेदभाव, राजनीति, करप्शन का जिस तरह का सधा हुआ  ताना बाना इस फिल्म में बुना गया है उसके लिये निर्देशक प्रशंसा के पात्र है ।
       फिल्म , फिल्म से कही ज्यादा है......किरदारों की आक्रोश भरी आँखे, उनका रोष बहुत कुछ बयां कर जाता है।
         आयुष्मान खुराना का दमदार अभिनय काबिले तारीफ है तो ईशा तलवार की संजीदगी मन मोह लेती है ।
       
          

टिप्पणियाँ

Sadhana Vaid ने कहा…
नि:संदेह फिल्म सिर्फ अच्छी ही नहीं बहुत बहुत बहुत अच्छी है ! जब से देखी है पल भर को भी मन मस्तिष्क पर पड़े इसके प्रभाव से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाई हूँ ! व्यापक प्रचार और प्रसार के लिए मन और आत्मा को झकझोरने में सक्षम यह फिल्म नि:शुल्क हर आम और ख़ास को दिखाई जानी चाहिए ताकि लोगों के ज़ेहन से जातिवाद की धुंध छँँट सके ! कई दृश्य अभी भी रात की नींद उड़ा देने ताकत रखते हैं !
आत्ममुग्धा ने कहा…
दी....बहुत आभार आपका...व्यस्तता की वजह से आ नहीं पाती....दिल से क्षमाप्रार्थी हूँ 🙏
आत्ममुग्धा ने कहा…
जी सहमत आपसे.....दिलो दिमाग पर असर छोड़ने वाली फिल्म
नूपुरं noopuram ने कहा…
आदमी की फ़ितरत नहीं बदली, देश, काल कोई भी हो.
समाज बदलेगा अगर ख़ुद को और अपनों को हम टोकें.

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