सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मैं सपने देखती हूँ

मैं सपने देखती हूँ
हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ
चार दशक जीने के बाद
रिश्ते नातों की लंबी फेहरिस्त में
खुद को घोल देने के बाद
हर कटू शब्द को जीते हुए
कुछ प्रशंसाओं को पीते हुए
अपने अंदर कुछ बचा पाती हूँ
हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ
चक्करघिन्नी सी जीते हुए
सिर्फ हाउसवाइफ कहलाते हुए
सुबह का नाश्ता बनाते हुए
पति के खानें में थोड़ा नमक कम करते हुए
बच्चों की शाम में मिल्कशेक सी घूल जाती हूँ
हाँ.....मै अब भी सपने देखती हूँ
रिश्तेदारी में लेनदेन को निपटाते हुए
सासू माँ को समझाते हुए
परम्पराओं को ढ़ोते हुए
कुछ रीती रिवाजों को
चुपके से ताक पर रख देती हूँ
हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ
जींस भी पहन लेती हूँ
हील्स भी पहन लेती हूँ
मोटा लाइनर आँखों पर सजा
मेनोपॉज से पंगा लेती हूँ
हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ
जिम्मेदारियों से भागती नहीं
मुसीबतों से डरती नहीं
हौसला हूँ खुद का, खुद से प्यार करती हूँ
हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ
शिकन में ठंडी हवा का झौका हूँ
बच्चों की चुहल करती दोस्त हूँ....तो
ब्रेकअपस् में सहारा पाती बेल का आधार हूँ
लेकिन....
अपनी गलतियों की मैं खुद जिम्मेवार हूँ
अपनी खामियों को सुधारती
सतरंगी सपने बुनती अतरंगी सी
मैं आधी सी बची जिंदगी हूँ...और
इसी बची जिंदगी में पुरे होगे सपने
क्योकि....मैं अब भी सपने देखती हूँ

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

धागों की गुड़िया

एक दिन एक आर्ट पेज मेरे आगे आया और मुझे बहुत पसंद आया । मैंने डीएम में शुभकामनाएं प्रेषित की और उसके बाद थोड़ा बहुत कला का आदान प्रदान होता रहा। वो मुझसे कुछ सजेशन लेती रही और जितना मुझे आता था, मैं बताती रही। यूँ ही एक दिन बातों बातों में उसने पूछा कि आपके बच्चे कितने बड़े है और जब मैंने उसे बच्चों की उम्र बतायी तो वो बोली....अरे, दोनों ही मुझसे बड़े है । तब मैंने हँसते हुए कहा कि तब तो तुम मुझे आंटी बोल सकती हो और उसने कहा कि नहीं दीदी बुलाना ज्यादा अच्छा है और तब से वो प्यारी सी बच्ची मुझे दीदी बुलाने लगी। अब आती है बात दो महीने पहले की....जब मैंने क्रोशिए की डॉल में शगुन का मिनिएचर बनाने की कोशिश की थी और काफी हद तक सफल भी हुई थी। उस डॉल के बाद मेरे पास ढेरों क्वेरीज् आयी। उन सब क्वेरीज् में से एक क्वेरी ऐसी थी कि मैं उसका ऑर्डर लेने से मना नहीं कर सकी । यह निशिका की क्वेरी थी, उसने कहा कि मुझे आप ऐसी डॉल बनाकर दीजिए । मैंने उससे कहा कि ये मैंने पहली बार बनाया है और पता नहीं कि मैं तुम्हारा बना भी पाऊँगी कि नहीं लेकिन निशिका पूरे कॉंफिडेंस से बोली कि नहीं,