सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मेरी दादी

कल ही मायके से लौटी हूँ......माँ (दादी) की आँखे , चेहरा इस बार ओझल ही नहीं हो रहा....इतना टुटा हुआ मैंने उन्हे कभी नहीं देखा....न जाने, दिन में कितनी बार उन्हे याद कर आँखे भीग जाती है ।जानती हूँ उम्र का ये पड़ाव तकलीफ देता है लेकिन उनके  पाँवों की नसों में खुन का प्रवाह बंद हो गया है ....जिसकी वजह से नसें दर्द में बुदबदाती है.....और उनका यही दर्द जो मैं महसूस करके आई हूँ ......रह रहकर मेरी नसों में भी रिसने लगता है 😐😐

बस...थोड़ा सा वक्त माँगता है
वो झुर्रियों से सजी त्वचा
वो झूकी सी कमर
वो बूझी सी आँखें
वो उदास सी नजरें
वो पैरों से होकर रिसता दर्द
कुछ नहीं माँगता
बस....थोड़ा सा वक्त माँगता है
वो पीड़ा से भीगी ...जागती,तन्हा रातें
वो लंबे से धीरे धीरे सरकते दिन
वो रीढ़ में चटखता दर्द
मवाद से कुलबुलातें पाँव
वो बेबसी...वो निर्भरता
उम्र का ये पड़ाव
कुछ नहीं माँगता
बस....थोड़ा सा वक्त मांगता है
वो कोर तक आया पानी
वो सिसकियां समेटे काँपते होठ
वो जर्जर सी काया
वो इंतजार में तकती आँखे
वो खाली सा कमरा
वो बेचैन सा मन
कुछ नहीं मांगता
बस....थोड़ा सा वक्त मांगता है
वो धीमी सी पदचाप
वो चार वक्त की दवाइयां
वो कमजोर शरीर का थरथराना
वो संभल संभल कदम बढ़ाना
वो बेजान सी पूतलियाँ....वो निस्तेज सा चेहरा
वो वक्त की मार...समय का घेरा
कुछ नहीं मांगता
बस....थोड़ा सा वक्त मांगता है
वो दादी है मेरी
वो हरवक्त मेरी बाट जोहती है
वो फुटना चाहती है मेरे आगे
पर देख मेरी आँखों में पानी
वो थाम लेती है खुद को...जब
उसके हिस्से के मेरे दिन
फूर्र से निकल जाते है....तब
वो रोकना चाहती है
चौखट लाँघते मेरे कदमों को, लेकिन
रोक नहीं पाती
बस,हाथ सिर पर रख देती है
कुछ बोल नहीं पाती..और
भारी मन...भीगी आँखे लिये
लौट आती हूँ मैं...लेकिन
मेरा मन डोलता रहता है
उन दर्दीले पैरों के आस पास ही
लाड लड़ाते काँपते हाथों के पास ही
मेरी दादी और उसका बुढ़ापा
कुछ नहीं मांगता
बस....थोड़ा सा मेरा वक्त मांगता है

टिप्पणियाँ

  1. बहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...
    रचना शायद इसी को कहते हैं ... लाजवाब ....

    जवाब देंहटाएं
  2. कुछ परिस्तिथियाँ ऐसी होती है जहाँ हम बेबस हो जाते है, यहाँ भी कुछ ऐसा ही है.. बड़ी ही असहनीय स्तिथि होती है जब हमारे सामने हमारा कोई अपना उस दर्द को झेल रहा हो और हम लाचार हो. भगवान से प्रार्थना करिये l जल्द ही सब अच्छा हो ऐसी कामना करता हूँ ��

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

किताब

इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है।      मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद।      किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है।        हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ।        धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प