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पूर्णांक

कल बारहवीं का रिजल्ट आया....जब भी बोर्डस् के रिजल्ट आते है...एक हंगामा हो ही जाता है। हर जगह रिजल्ट की ही चर्चा....सोशियल मीडिया हो, न्यूज हो या समाचार पत्र। टॉपर रहने वाले बच्चें रातों रात सितारें बन जाते है। पुरा देश उन पर फख्र करने लगता है । उनके माता पिता गंगा नहाये से हो जाते है और जिन बच्चों को महज उनसे दो चार नम्बर कम आते है उनके माता पिता अफसोसजनक स्थिति में होते है ...रह रहकर एक तंजभरी दृष्टि अपने बच्चों पर डाल भी देते है शायद ।

         यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि अच्छे नम्बरों से पास होना बुरी बात नहीं है लेकिन इसका इतना हंगामा मचाना बहुत गलत है । निसंदेह 500 में से 499 लाना बहुत बड़ी बात है लेकिन इतना होने पर भी एक नम्बर कम रह जाने का अफसोस मनाना निहायत बेवकूफी है। एक नम्बर कहाँ और क्यो छूट गया .....परिजनों और बच्चों की ये सोच ही हमारी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है।
       परसो जब न्यूज एडिटर मशीनी तरीके से नेशनल टेलीविजन पर यह राग अलाप रहे थे तो मेरे पति ने भी कहाँ कि वाह कितने होशियार बच्चें है......मेरा बेटा भी वही था और मैंने तपाक से कहा कि इन बच्चों ने शायद गर्दन को इधर से उधर भी न किया होगा साल भर .....अब रिजल्ट आने के बाद शायद अपनी जिंदगी जी पाये ।

         जहाँ तक मुझे याद है , बचपन से ही हम एक बात सुनते हुए बड़े हुए है कि हिंदी या अंग्रेजी में पूर्णांक आ ही नहीं सकते। उस वक्त मैं ये समझने की योग्यता नहीं रखती थी लेकिन भाषा और साहित्य की थोड़ी समझ आने के बाद मुझे पता लगा कि साहित्यिक विषयों में कभी पूर्णांक नहीं आ सकते। साहित्य की हरेक व्यक्ति की सोच, समझ और बौद्धिकता अलग होती है और किसी भी एक को सर्वोत्तम नहीं बताया जा सकता। अब बोर्ड ने किसी एक बच्चें को सर्वोच्च और सर्वोत्तम बता ही दिया है तो आप ही बताइये कि क्या उसके सीखने के सारे द्वार बंद नहीं कर दिये गये क्योकि वह तो सर्वश्रेष्ठ है ?   क्या कोई भी पूर्ण हो सकता है और वो भी विद्यार्थी अवस्था में ? हमे कतई नहीं भुलना चाहिये कि कुछ भी सीखने के लिये हमे पूर्ण नहीं अधुरा होना पड़ता है । हमारी शिक्षा प्रणाली पर हमे विचार करने की जरुरत है कि हम हमारे बच्चों को उस राह पर छोड़ रहे है , जहाँ रट्टा लगाकर नम्बर हासिल करना ही मुख्य ध्येय हो गया है ।
         हर माता पिता चाहते है कि बच्चें तरक्की करे लेकिन 100 में से 100 नम्बर लाये .....ऐसा सोचना निहायत बचकाना है। वास्तव में हमारी शिक्षा व्यवस्था ही गलत साँचें में फिट है.....यहाँ हमेशा नम्बरों से बुद्धिमता को तोला जाता है। अगर कोई बच्चा किसी विषय विशेष में खास योग्यता रखता है तो भी उसे किसी जाने माने कॉलेज में प्रवेश उसके नम्बरों के आधार पर ही मिलेगा। वास्तव में देखा जाये तो हमारा पुरा ढ़ांचा ही बिगड़ा हुआ है। हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है जो सबसे पहले हमे हमारी मातृभाषा से अलग करती है। मैं आज तक नहीं समझ पाई कि एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा सीखने के लिये क्या यह जरुरी है कि हम हरेक विषय उसी भाषा में पढ़े और समझे जबकि हम अपनी मातृभाषा में उसे सीखने में अधिक सहज होते है.....क्या आपको नहीं लगता कि यह एक थोपी हुई शिक्षा पद्धति है.....खैर, यह एक अलग मुद्दा है ।
            फिलहाल तो हमे इस नम्बर रेस से अपने बच्चों को बाहर खिंच लाने की जरुरत है । मुझे याद है हम 60% में भी मिठाइयां बाँटा करते थे और मैने अपने आस पास ऐसे भी लोग देखे है जो बच्चे के अगली कक्षा में जाने को लेकर ही खुश हुआ करते थे.....क्या वे अपने बच्चों का मनोबल घटाते थे ऐसा करके ? आज वे सब बच्चें एक सफल जीवन भी जी रहे है । यहाँ कुछ अभिभावक यह प्रश्न उठा सकते है कि अगर बच्चा अधिक नम्बर लाता है तो उसमे क्या बुराई है ......निसंदेह कोई बुराई नहीं है बल्कि अच्छी बात है...लेकिन बुराई हमारी शिक्षापद्धति में है, योग्यता तय करने के हमारे मापदंडों में है, नम्बरों के पीछे भागते अभिभावकों की अंधीदौड़ में है । अगर आपको यह सही लगता है तो सवाल कीजिये खुद से कि क्या आज भी 60% पाने वाला बच्चा या अभिभावक खुशी मना सकते है ?
      जीवन बहुत बड़ा है .....यहाँ न जाने कितनी परीक्षाएं अभी बाकी है...अपने बच्चों को उन परीक्षाओं के लिये तैयार कीजिये। आज के इन आँकड़ो को जिंदगी कोई तवज्जों नहीं देगी.....जिंदगी की इस रेस में वही लोग टिकेंगे जो इससे डील कर पायेंगे और दो नम्बर कम आने पर गहन अवसाद में जाने वाले हमारे बच्चे ये डील नहीं कर पायेंगे.....
     समझिये, उन्हे नम्बरों से ज्यादा भावनात्मक मजबूती की जरुरत है । अगर भावनात्मक रुप मे मजबूत हुए तो एक क्या जीवन की हर परीक्षा पार कर लेंगे

टिप्पणियाँ

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-05-2019) को

"माँ कवच की तरह " (चर्चा अंक-3326)
पर भी होगी।

--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
M VERMA ने कहा…
सामयिक विषय का बखूबी विश्लेषण
आत्ममुग्धा ने कहा…
नमस्ते.....शुक्रिया आपका
मन की वीणा ने कहा…
बहुत सुंदर सार्थक आलेख।
इस झूठी प्रतिस्पर्धा ने किशोर मन को कुंठा और अवसाद की तरफ ढ़केल दिया हैं जिसके घातक परिणाम आ रहें हैं सामायिक चिंतन देता सहज सृजन ।
साधुवाद।
आत्ममुग्धा ने कहा…
सराहना का शुक्रिया
Onkar ने कहा…
सही कहा
बेनामी ने कहा…
बहुत ही उम्दा.. 3 idiots में आमिर खान वाला चरित्र याद आ गया.अभिभावकों को भी चाहिए कि बच्चों को शुरू से ही सिखाएं कि परिणाम की चिंता किये बिना वो अपना सर्वश्रेस्ठ दें. बच्चों को समझदार बनायें जिससे वो खुद निर्णय ले सकें कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या गलत..
आत्ममुग्धा ने कहा…
एक अंधी दौड़ में शामिल है सभी

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