सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

वो एक अंडा


बच्चों के लिये कहानी लिखने का प्रथम प्रयास

कल जब मैं सब्जी लेने मार्केट गयी तो भीड़ कुछ ज्यादा ही थी । बगल में ही मच्छी बाजार भी लगा था और उसकी स्मैल को सह पाना मेरे लिये दुभर था । मैने जल्दबाजी में सिर्फ टमाटर , आलु और भिंडी ली और घर आ गई।
          घर आकर सब्जी का थैला एक तरफ रखकर मैंने अपने लिये चाय बनाई । चाय पीकर मैने थैले से आलु निकाले और भिंडी को धोकर सुखने रख दिया। अब टमाटर धोने की बारी थी। मैने सब टमाटर निकाले तो देखा कि एक टमाटर सफेद था। मेरे आश्चर्य का ठीकाना न रहा, मैं सफेद टमाटर पहली बार देख रही थी। मैने हाथ में लेकर देखा। अरे ! ये तो अंडा था । मैं हैरान रह गयी की ये टमाटर के साथ कैसे आया और सब्जी मार्केट में तो अंडों की कोई दुकान थी भी नहीं। खैर.....ज्यादा न सोचते हुए मैंने अंडे को डस्टबिन में डाल दिया और खाना बनाने में व्यस्त हो गई। खाना खाकर जब मैं प्लेट्स् रखने सिंक में गई तो सन्न रह गई। अंडा डस्टबिन के बाहर पड़ा था जबकि मुझे अच्छे से याद था कि मैंने अपने हाथों से उसे डस्टबिन में डाला था । मैंने उसे फिर से उठाया और डस्टबिन में डालने ही वाली थी कि मैं थोड़ा ठिठकी.....मैंने उस अंडे को ध्यान से देखा । यूँ तो सामान्य सा ही था पर पता नहीं क्यो मुझे उसमे जीवन महसूस हुआ। वो बाहर से थोड़ा गंदा था सो मैंने उसे कपड़े से साफ किया। साफ करते करते ही मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा । कुछ सोच मैं मुस्कुराई और उस अंडे को बहुत सहेज कर रूई में लपेट कर रख दिया ।
             बात आई गयी हुई और अचानक हफ्ते भर बाद मुझे अंडे की याद आई। मैंने तुरंत उसे रूई में से बाहर निकाला। इस बार फिर मैं आश्चर्यचकित थी , अंडा आकार में बड़ा हो गया था । मैने उसे संभाल कर टेबल पर रखा और अपना डूडलिंग वाला पैन ले आई । मैं उस पर डिजाइन बनाना चाहती थी और बिना कुछ सोचे समझे मैंने अपने पैन को अंडे पर चलाना शुरु कर दिया। सफेद अंडे पर पैन की लाइनें जैसे जादू कर रही थी। मैं संभलकर पैन चला रही थी कि अंडा कही टूट न जाये ।

क्रमशः

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...