राजकुमार सिद्धार्थ ने जब महल छोड़ा था तो उन्हें एक गुरू की तलाश थी जो मुक्ति का मार्ग दिखा सके, और उन्होने दो आचार्यों आलार कालाम और उद्रक से आध्यात्मिक शिक्षा ली। 'अपदार्थता' (ध्यान साधना की उच्चतर अवस्था) और 'पायतन समाधि' तक के पड़ाव उन्होने शीघ्र पूरे कर लिये लेकिन ध्यान साधना के दो सर्वोच्च तथा मान्य आचार्यों से शिक्षा पाकर भी सिद्धार्थ अनुत्तरित रहे। तब उन्होने निश्चय किया कि बोधिसत्व की प्राप्ति के लिये वे स्वयं साधना करेंगे और अपने गुरू आप बनेंगे और इस तरह उन्हें संबोधि की प्राप्ति हुई।
यहाँ सब हमे सीखाते है, सब किसी न किसी हद तक हमारे गुरू है, लेकिन ये भी सच है कि हमारा सबसे बड़ा गुरू हम स्वयं है.....हालांकि बोधिसत्व, संबोधि और बुद्ध होना तो असंभव है, हमे तो बस सही गलत, चेतन अचेतन, अच्छे बुरे का बोध हो जाये, हमारी बुद्धि का प्रवाह सही हो जाये..... हम बस सबुद्ध बन जाये, वही बहुत है ।
पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा चिनार और पिता
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें