और किताब पढ़कर खत्म हुई.....एक महान और सच्चे कलाकार की दास्तां..... थियो जैसे भाई की अमिट छाप मुझ पर पड़ी है...अभिभूत हूँ ऐसे प्यार को महसूस करके 😍
इतने बेहतरीन अनुवाद के लिये अनेकानेक धन्यवाद अशोक पांडे सर का
इसी किताब के गलियारों से गुजरते एक कविता ने जन्म लिया.....
रंग उसका जीवन थे
वो सदैव रंगों से सराबोर रहा
उसकी विशलिस्ट में
पहले नम्बर से लेकर
सबसे आख़िर तक
सिर्फ़ और सिर्फ़ रंग थे
उसके कैनवास
दुनिया की बेशकीमती पेंटिंगों में शुमार है,
लेकिन, जब तक उसके हाथ
उन्हें रंगते रहे,
तब तक उनकी कीमत किसी ने न पहचानी,
सिवाय थियो के
बाकी लोगो ने
उसे पागल कहा
सनकी कहा
क्योंकि रंगों से इतर उसने कुछ नहीं देखा
मूलभूत ज़रूरतों तक को नज़रंदाज़ किया
वो जरा से प्यार से खुश हो जाता था।
वो हमेशा प्यार मांगता रहा
वो दुख की नसों पर पकड़ रखता था,
वो पीले रंग से बेइंतहा प्यार करता था
वो हमेशा , जल्दबाज़ी करता था।
तपती धूप में वो सोने सा दमकता था,
उसकी लाल, छितरी दाढ़ी ,
निश्छल आँखे
और एक सह्रदय मन,
उसे सबसे अलग बनाता था
वो आत्ममुग्धित होकर शीशे में झांकता था,
और ख़ुद को कैनवास पर उंडेल देता था।
कान के ऊपर बंधी पट्टी
उसे असमंजस में डालती थी
हर तीन माह पर उसे डर सताने लगता था,
वो हरसंभव प्रयास करता था
ख़ुद को एकदम सामान्य रखने का ,
लेकिन,
एक दौरा हर बार उसे
अपनी जकड़न में ले लेता था ।
रंगों के अलावा
वो थियो से भी बेइंतहा प्यार करता था,
दुनिया को अलविदा कहने के पहले
वो थियो की बाहों में था ।
वो जैसा आया,
वैसा ही लौट गया,
लेकिन ,रंगों की एक दास्तां
इस दुनिया को दे गया ।
©आत्ममुग्धा
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