कहने को तो वह
कोमलांगिनी है
नाजुक सी देह की स्वामिनी है
भावों की अश्रु धार है
क्षतविक्षत ह्रदय की रफु की हुई कामायिनी है
लेकिन सोचा है कभी
कैसे कर जाती है वो
प्यार, स्नेह, दुलार, कर्तव्यनिष्ठा
मान सम्मान, प्रतिष्ठा,
संघर्ष, जुझारूता, आत्मनिष्ठा
दुख, दर्द की पराकाष्ठा
कैसे सह जाती है वो
हर वो बात
जो पुरुषों तुम्हारे बस की नहीं ।
पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा चिनार और पिता
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार जून 09, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका बेहद शुक्रिया यशोदाजी
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जवाब देंहटाएंक्षतविक्षत ह्रदय की रफु की हुई कामायिनी है
शानदार लेखन
सराहना के लिये धन्यवाद
हटाएंछोटे में बहुत कुछ कहती रचना।
जवाब देंहटाएंसतसैया के दोहे जैसी भावार्थ समेटे।
अप्रतिम।
आपके इतने सुंदर शब्दों के लिये आभार आपका
हटाएंबहुत सुंदर भावो से सजी रचना ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका मुझे प्रोत्साहन देने के लिये
हटाएंसार्थक रचना
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा भावों का सृजन ।
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी रचना बहुत कुछ सिखा जाती है