कभी देखा है ध्यान से
इन रिमझिम बरसती बुंदों को
कभी महसूस किया है
धरा के तृप्त मन को
यूँ तो आसमाँ धरती से मिल नहीं सकता
बस, एक भ्रम होता है
उनके मिलन का दूर कही क्षितिज में
लेकिन....
जब, यह वियोग चरम पर होता है
धरा तप्त होती है
आकाश भी तप कर तड़पता है
तब कही पसीजता है एक कोना
और.....
बरखा की बुंदें
लाती है प्रेम संदेशा बादलों का...तब
धरा नाचती है बिल्कुल यूँ
जैसे गरम तवे पर थिरकती है
पानी की एक बुंद
एक लय के साथ.....
उसी लय और ताल के साथ
करोड़ों बुंदें , जब मिलने आती है जमीं की ओर
तो प्रकृति उत्सव मनाती है
मिलन का....और
तप्त धरा तृप्त होती है
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी