नहीं आसान होता किसी को भुल जाना
रोजमर्रा में सुरज के साथ जलते हुए
पृथ्वी के साथ परिक्रमा करते हुए
चाँद को सिरहाने रखते हुए
रातों को टुटते तारों को देख
उदास होते हुए
नहीं आसान होता किसी को भुल जाना
सबके बीच अकेलेपन से जूझते हुए
कुछ धूँधली सी यादों को जीते हुए
नफरत के कंकर को बीनते हुए
विष में से दो बूंद अमृत की सहेजते हुए
कटु शब्दों को स्मृतियों से हटाते हुए
नहीं आसान होता किसी को भुल जाना
असंभव को संभव से गुजरकर
फिर असंभव पर आकर देखते हुए
हवा के बिना साँस लेते हुए
आधार बिना चलते हुए
बिना आसमाँ उड़ान का सपना लिये हुए
आँसू बिना बिलखकर रोते हुए
उदास सी हँसी चेहरे पर सजाते हुए
नही आसान होता किसी को भुल जाना
चंद लम्हों के साथ जीते हुए
जिंदगी से बिछड़ते हुए
ऊल जुलूल सोचते हुए
बेवजह तकरीर में उलझते हुए
नियती को बदलते हूए
मोह के धागों की उलझन को सुलझाते हुए
कहाँ आसान होता है किसी को भुल जाना
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
टिप्पणियाँ