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माँ

मैं पुकारती हूँ तुम्हे
पर वो पुकारना शुन्य में विलिन हो जाता है
जब भी दर्द में होती हूँ
किसी को न दिखने वाले मेरे आँसू
छलकना चाहते है तेरे आगोश में
पर वो जज्ब नहीं हो पाते तेरे आँचल में
और भटकते रहते है मुझमें ही
तलाशते रहते है एक कोना अंधेरा सा
एक काँधा अपना सा,
लेकिन बेबस हो बह जाते है अंदर की ओर ही
सिमट जाते है मन के एक रिक्त कोने में
कभी कभी वो कोना स्पर्श चाहता है तुम्हारा
नमी चाहता है अपनेपन की
बारिश चाहता है प्यार की
धुप चाहता है खिली खिली सी
पर जानती हूँ मैं....तुम नहीं हो यहाँ
रिक्त ही रहेगा वो कोना अब हमेशा
अब मेरे सिर पर नहीं है वो दो हाथ
जो मुझे बेफिक्री का अहसास कराते थे
जबसे तुम गई हो ..... माँ
पिछले पाँच सालों में भुरभुरी सी हो गई हूँ
बिना जमीं का एक पौधा रह गई हूँ
पर माँ मैं बरगद बनना चाहती हूँ
अपनी जड़ों को भुरभुरी सी मिट्टी में
गहरे तक फैला देना चाहती हूँ मजबूती से
ताकि कोई भी तुफान
अब मुझे हिला न सके
तेरा न होना भी कभी कभी
मुझमे रक्त संचार सा करता है
अब तेरे सच की राह मुझे आसान लगती है
अक्सर तू मुझ में समाहित हुई सी लगती है

टिप्पणियाँ

yashoda Agrawal ने कहा…
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 13 अप्रैल 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
माँ का अक्स अक्सर उतर आता है बेटियों में ... समय के साथ वो भी जगत जननी हो जाती हैं ...
बहुत सुन्दर रचना ... दिल को छूती हुयी ...
आत्ममुग्धा ने कहा…
बेहद आभार शुक्रिया 😊🙏
आत्ममुग्धा ने कहा…
शुक्रिया सर.....माँ की उपस्थिति अनुपस्थिति दोनो के गहन मायने 😊

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