सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अपनी कहानी बयां करता एक शहर......हम्पी

मैं हम्पी हूँ......1336 में हरिहर राय और बुक्का राय नाम के दो भाईयों ने मेरी नीवं रखी थी। लेकिन मेरा इतिहास इससे भी कही पुराना है । पुरातन काल में मुझे किष्किंधा नाम से भी जाना जाता था। जी हाँ....वही किष्किंधा जिसका जिक्र रामायण में है....वानर नगरी , किष्किंधा। किसी वक्त में मैं बौद्धों की कार्यस्थली भी हुआ करता था ।
     यूँ तो मेरा इतिहास प्रथम शताब्दी से ही प्रारंभ हो जाता है लेकिन सबसे ज्यादा फला फुला मैं हम्पी के रुप में।
                  दक्षिण भारत के विशाल साम्राज्य विजयनगर की मैं वैभवशाली राजधानी हुआ करता था। अपनी समृद्धि, वैभव, विशालता और बनावट के लिये मैं पुरी दुनिया में प्रसिद्ध था । उस वक्त मैंने सिर्फ खुशहाली देखी । मैं भारतीय इतिहास का वो समृद्ध काल हूँ जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते । ग्रेनाइट की गोल विशालकाय चट्टानों के बीच , तूंगभद्रा नदी के किनारे बसा मैं अद्भुत शहर था । तूंगभद्रा नदी का प्राचीन नाम पंपा था और यही नाम माता पार्वती का भी था....इसी के नाम पर मेरा नाम हम्पी रखा गया । हम्पी पंपा का ही अपभ्रंश नाम है ।
        हरिहर राय और बुक्काराय से लेकर सदाशिव तक 21 राजाओं ने लगभग 350 वर्षों तक मुझ पर राज किया । लेकिन 1501 से लेकर 1529 तक मुझ पर राजा कृष्णदेव राय ने राज किया......जी हाँ, वही कृष्णदेव राय जिनके दरबार में तेनालीराम हुआ करते थे । आप सबने बचपन में इनकी कथाएँ अवश्य सुनी होगी.....उन सब कथाओं ने मेरे प्रांगण में ही जन्म लिया था ।
     आज के इस आधुनिक युग में आप सबने बहुत तरक्की की है लेकिन मैं.....हम्पी, 15वी शताब्दी के उस दौर में भी आधुनिक युग को जी आया हूँ । मेरे पास आज के आईटी इंजीनियर से बेहतरीन इंजीनियर थे, कुशाग्र बुद्धिमान वैज्ञानिक थे, सतर्क गणितज्ञ थे, कुशल राजनीतिज्ञ थे....जिन सब ने मिलकर मुझे रचा ।
     दुनियाभर के लोग व्यापार करने मुझ तक पहूँचते थे और मेरी भव्यता देखकर दंग रह जाते थे। इटली , ईरान, पूर्तगाल से आये व्यापारियों ने मुझे दुनिया का सबसे ऐश्वर्यशाली नगर बताया था । पुर्तगाली इतिहासकार डोमिंग पेस ने मुझे सपनों की नगरी बताया था ।
         मैं हर दृष्टि से सम्पन्न था। नगर का निर्माण इस तरह का था कि मैं स्वयं आत्ममुग्ध हो जाता था अपनी निर्माण व्यवस्था को देखकर। मेरे मंदिर , महल, बाजार, स्नानागार सभी की स्थापत्य कला बेजोड़ थी और सबसे खास बात यह कि स्थापत्य की सभी स्थापित कलाओं का यहाँ सम्मान होता था । स्मारकों में इस्लामिक और हिंदू दोनो की स्थापत्य कला का समावेश था ।
     मंदिरों पर की गई नक्काशी देखकर मुझे अपने इंजीनियरों, वास्तुशिल्पियों और कारीगरों पर गर्व होता है। मैं मंदिरों की एक खुबसूरत श्रृंखला रखता था शायद इसीलिये आप लोग मुझे मंदिरों का शहर भी कह देते हों।
             मुझे शानदार महलों और मंदिरों से अलंकृत करने का  सबसे अधिक श्रेय जाता है कृष्णदेव राय को , उन्होंने अपने अंश की तरह सींचा मुझे ..... और मैं भी उस दौर में ऐसे ही पनपा जैसे इश्क़ में निखरता है कोई । मैं अपने चरमकाल में था और मेरी तुलना उस वक्त के सबसे समृद्ध शहर रोम से की जाती थी । मैं आपकी कल्पनाओं से भी बड़ा शहर था ।

    फिर आया वो वक्त जब मैंने अपना पतन देखा....इतिहास का सबसे क्रुरतम हमला।
बीदर, बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर और बरार की मुस्लिम सेनाओं ने 1565 में सयुंक्त रुप से हमला कर न सिर्फ मुझे बल्कि पुरे विजयनगर का अंत कर दिया ।
     मुझे बेहिसाब लुटा गया, मेरे सुंदर स्मारकों महलो और मंदिरों को जलाकर खाक  कर दिया गया.....भंयकर लुटपाट और कत्लेआम ने मेरी छाती पर लाशों का ढ़ेर लगा दिया । मेरा नामोनिशान मिटानें में उन लोगो ने कोई कसर नहीं छोड़ी । मैं स्तब्ध था क्योकि मैं समय की भट्टी पर धीमे धीमे पका प्रेम का वो पौधा था जो पतझड़ के मौसम में भी बसंत को जीता था । यह एक असंवेदनशील प्रहार था मेरी आत्मा पर,  मैं खून के आँसू पीता रहा, मूक देखता रहा और चुपचाप दर्ज होता रहा इतिहास के पन्नों में। मै बुरी तरह से ध्वंस था....बिखरा था। मेरी शामें अब उदास थी, गूंजती स्वर लहरिया खामोश थी, मैं अब खंडहर था जिसमें दफन हो गये थे सारे जज्बात और सारी रौनके । समय के साथ मेरे खंडहर भी वक्त के थपेड़े सहन न कर सके और जमीदोज हो गये । मेरी साँसे घूट रही थी ......अपनी ही जमीं में दफन था मैं । लगभग 240वर्षों तक गुम रहने के बाद मेरे खंडहरों की खोज सन 1800 में कर्नल कोलिन मच्केंजि ने की थी। इसके बाद ध्वस्त हुई मेरी इमारतों को खोद खोद कर बाहर निकाला जाने लगा और मुझे फिर से सहेजा जाने लगा ।
      मैं शुक्रगुजार हूँ भारत सरकार, कर्नाटक सरकार और सबसे ज्यादा युनेस्को का । युनेस्को चाहता है कि मुझे फिर से बसाया जाये, पुराने हम्पी को लौटा लिया जाये.....लेकिन गुजरे हुए जमाने कहाँ लौट कर आते है ।
       मैं शुक्रगुजार हूँ उन सभी का जो मेरे इन खामोश खंडहरों से बतियाते है और सुनते है वो मूक ध्वनि जो हर कोई नहीं सुन पाता।
    आप सब ताजमहल देख कर आते है जो पहली नजर में आपको लुभा जाता है लेकिन जब आप लोग मुझ तक पहूँचते है ....मैं पहली नजर का आकर्षण नहीं होता हूँ शायद , फिर भी आप लोग मेरी आत्मा पर दस्तक देते है और मैं भाव विभोर हो जाता हूँ। मेरे उधड़े रंगों वाले खंडित मंदिर आरती की गूंज से भर जाते है । मेरे टुटे फूटे स्तंभ अपनी गाथाएं गाने लगते है । और यह सब इसलिये संभव होता है क्योकि आप लोग इसे सुनते है, समझते है , महसुसते है ।
       आप सब यूँ ही दस्तक देते रहिये , मैं खुले आसमाँ के नीचे सदैव आपके स्वागत में तत्पर हूँ।
हाँ, मै हम्पी हूँ......मैं एक गुम हुआ शहर हूँ

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

पलाश

एक पेड़  जब रुबरू होता है पतझड़ से  तो झर देता है अपनी सारी पत्तियों को अपने यौवन को अपनी ऊर्जा को  लेकिन उम्मीद की एक किरण भीतर रखता है  और इसी उम्मीद पर एक नया यौवन नये श्रृंगार.... बल्कि अद्भुत श्रृंगार के साथ पदार्पण करता है ऊर्जा की एक धधकती लौ फूटती है  और तब आगमन होता है शोख चटख रंग के फूल पलाश का  पेड़ अब भी पत्तियों को झर रहा है जितनी पत्तीयां झरती जाती है उतने ही फूल खिलते जाते है  एक दिन ये पेड़  लाल फूलों से लदाफदा होता है  तब हम सब जानते है कि  ये फाग के दिन है बसंत के दिन है  ये फूल उत्सव के प्रतीक है ये सिखाता है उदासी के दिन सदा न रहेंगे  एक धधकती ज्वाला ऊर्जा की आयेगी  उदासी को उत्सव में बदल देखी बस....उम्मीद की लौ कायम रखना 

जिंदगी विथ ऋचा

दो एक दिन पहले "ऋचा विथ जिंदगी" का एक ऐपिसोड देखा , जिसमे वो पंकज त्रिपाठी से मुख़ातिब है । मुझे ऋचा अपनी सौम्यता के लिये हमेशा से पसंद रही है , इसी वजह से उनका ये कार्यक्रम देखती हूँ और हर बार पहले से अधिक उनकी प्रशंसक हो जाती हूँ। इसके अलावा सोने पर सुहागा ये होता है कि जिस किसी भी व्यक्तित्व को वे इस कार्यक्रम में लेकर आती है , वो इतने बेहतरीन होते है कि मैं अवाक् रह जाती हूँ।      ऋचा, आपके हर ऐपिसोड से मैं कुछ न कुछ जरुर सिखती हूँ।      अब आते है अभिनेता पंकज त्रिपाठी पर, जिनके बारे में मैं बस इतना ही जानती थी कि वो एक मंजे हुए कलाकार है और गाँव की पृष्ठभूमि से है। ऋचा की ही तरह मैंने भी उनकी अधिक फिल्मे नहीं देखी। लेकिन इस ऐपिसोड के संवाद को जब सुना तो मजा आ गया। जीवन को सरलतम रुप में देखने और जीने वाले पंकज त्रिपाठी इतनी सहजता से कह देते है कि जीवन में इंस्टेंट कुछ नहीं मिलता , धैर्य रखे और चलते रहे ...इस बात को खत्म करते है वो इन दो लाइनों के साथ, जो मुझे लाजवाब कर गयी..... कम आँच पर पकाईये, लंबे समय तक, जीवन हो या भोजन ❤️ इसी एपिसोड में वो आगे कहते है कि मेरा अपमान कर