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बेल

क़रीबन हफ़्ताभर पहले रसोईघर की खिड़की में रखे अपने पौधों को पानी देते समय मैंने देखा कि एक नन्हा सा अनजाना बीज गमले के एक कोने से अंकुरित हो रहा है।दुसरे दिन मैंने देखा कि वह बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है,कौतूहलवश मैं रोज पानी देती रही और हफ़्ते भर में एक बल खाती इठलाती बेल मेरी नजरों के सामने थी,जो मेरी रसोईघर की खिड़की से लगकर ऊपर की ओर बढ़े जा रही थी। हांलाकि अभी तक मुझे यह समझ नहीं आया कि यह बेल है किस चीज़ की,फिर भी इसकी बल खाती अदाओं ने मुझे अपनी ओर खींच रखा है। हफ़्ताभर से ना जाने कितने सबक़ यह मुझे सिखा रही है,बस उन्हीं बातों को यहाँ बाँटना चाहती हुँ।
सबसे पहले जब यह अंकुरित हुआ था तो मुझे आश्चर्य हुआ कि बिना कोई बीज डाले यह कैसे फुटा,शायद पहले का कोई बीज था जो मिट्टी में गहरा दबा था,लेकिन जैसे ही उसे मिट्टी पानी की नमी मिली वो लहरा उठा।बिल्कुल इसी तरह हम सब के अंदर भी ना जाने कितनी अच्छाइयाँ दबी पड़ी है जो अनुकूल वातावरण मिलते ही निकल आती है।अपने बच्चों के व्यक्तित्व को निखारने के लिये हमे उन्हें उचित खाद पानी देना चाहिये ताकि उनकी प्रतिभा निखर सके।
जिस तेज़ी से यह बेल बढ़ रही थी मैं स्तब्ध थी शायद इसीलिये बेटियों को बेल की उपमा दी जाती है। कहते है ना कि बेटियाँ बेल की तरह बढ़ती है पता ही नहीं चलता कब माँ के कांधे आ लगती है ठीक उसी तरह मेरी ये बेल भी सिर्फ सात दिनों में ऊपर की मंज़िल को छू गयी।
जब यह बेल ऊपर की ओर बढ़ी जा रही थी तो ना जाने क्या सोचकर मैंने इसकी एक बलखाती शाखा का मुँह नीचे की तरफ कर दिया ताकि वो खिड़की को लिपटती नीचे आ जाये ।मेरा मक़सद यही था कि मेरी पूरी खिड़की में यह लहलहाये। लेकिन ये क्या......यह तो खुल के फिर से ऊपर की ओर ही जा रही थी। मैंने दुबारा इसका मुँह नीचे की तरफ कर दिया लेकिन शायद नीचे झुकना इसकी फ़ितरत में नहीं था। मेरे तीन चार बार उसे उसकी प्रकृति के विरूद्ध चलने पर मजबूर किया लेकिन अन्ततः मैंने देखा कि बेल की वह नन्ही शाखा निर्जीव हो गयी वो जहाँ थी वही रह गयी,मुझे बड़ा दुख हुआ क्योंकि यह मेरी छेड़खानियों का ही नतीजा था। अब मैंने सीखा कि हरेक की अपनी एक प्रकृति होती है और उसी के अनुसार उसका विकास होता है,ज्यादा टोकना या उनकी प्रकृति के विपरीत कार्य करवाना व्यक्ति विशेष के विकास को अवरूद्ध करना है। मैंने युँ ही यह बात रौनक( मेरा बेटा ) को बतायी और उससे पुछा कि बेल की इस शाखा के इस तरह निर्जीव हो जाने से तुम क्या सोचते हो........उसने मुझे बेहद खुबसूरत जवाब दिया। उसने कहा कि मतलब साफ है हमे कोई कितना भी टोकें हमे हमारे स्वभाव के अनुसार ही आगे बढ़ना है ,हमे हमारे रास्ते आगे बढ़ना है चाहे राह में कितनी ही अड़चनें आये।बच्चें का यह नजरियाँ भी मुझे रास आया।
जब इसकी एक शाखा मेरी वजह से निर्जीव हो गयी तो मैंने देखा कि छोटी छोटी दो शाखायें उसी निर्जीव शाखा के उद्गम से निकल रही है।अब मेरा मन थोड़ा प्रसन्न था,मेरी ग्लानि थोड़ी कम हुयी। इसकी नन्ही शाखायें फिर से मुझे सिखा रही थी कि कभी भी हार कर मत बैठो किसी ना किसी रूप में आगे बढ़ो।आगे बढ़ोगे तो अपना अस्तित्व बनाये रखोगे नहीं तो वक़्त की मार और थपेड़े तुम्हें कब का नीचे गिरा देंगे।
अब मैं इसकी शाखाओं से छेड़छाड़ नहीं कर रही थी और यह स्वयं अपना रास्ता बनाती आगे बढ़ती जा रही थी। मैंने पुनः सिखा कि बेल की तरह हमे हमारी राह ख़ुद बनानी पड़ती है। रोज पानी देते समय मैंने ग़ौर किया कि यह सिर्फ ऊपर को ही नहीं बढ़ रही बल्कि जड़ों से भी मजबुत होती जा रही है,इसका पतला सा नाज़ुक निचला हिस्सा अब मजबुत तना बनता जा रहा है। सीख यही है कि हम चाहे सफलता की कितनी भी सीढ़ियाँ चढ़ जाये हक़ीक़त के ठोस धरातल पर अपने पाँव जमा के रखने होंगे। नींव जितनी मजबुत होगी ईमारत उतनी ही सुदृढ़ होगी।
बस,बेल की एक ही बात मुझे कचोट रही है कि यह बिना किसी सहारे नहीं बढ़ सकती,हर हाल में इसे सहारा चाहिये। एक सुदृढ़ सहारा इसे किसी भी उँचाई तक पहुँचाने के लिये पर्याप्त है।वैसे यह बात भी सीख तो देती है कि अगर हम अपने बच्चों को सहारा देंगे तो उन्हें भी उँचाईयों की हदों तक सफल बनाया जा सकता है। एक अच्छा सहारा पाकर जिस तरह बेल बलखाती ईठलाती बढ़ती है उसी तरह एक अच्छी परवरिश का सहारा पाकर हमारे बच्चें भी खिल उठेंगे।
ना जाने और भी कितनी सीखें छुपी हुयी है हमारे इर्द गिर्द ,बस उन्हे ढ़ुंढ़ के अमल में लाने की जरुरत हैं क्योंकि प्रकृति रोज एक नया पाठ सिखाती है।

टिप्पणियाँ

  1. अगर हम अपने बच्चों को सहारा देंगे तो उन्हें भी उँचाईयों की हदों तक सफल बनाया जा सकता है। एक अच्छा सहारा पाकर जिस तरह बेल बलखाती ईठलाती बढ़ती है उसी तरह एक अच्छी परवरिश का सहारा पाकर हमारे बच्चें भी खिल उठेंगे।
    बिल्कुल सही कहा.एक उम्र में बच्चों को अपनों के सहारे और भावनात्मक संबल की जरूरत होती है.
    नई पोस्ट : सांझी : मिथकीय परंपरा

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