सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अनाहत

तुम्हारे ह्रदय में 
स्थित है एक लौ
जो अदृश्य है
क्योकि
तुम महसूस नहीं कर पाते उसे
तुम्हारे संवेगो के चलते
भय की गुंजन से
बस वो एक अनवरत स्पंदन में है
अनियंत्रित रुप से धड़कती 
तुम्हारी धड़कने तुम्हे डरा देती है
उस लौ को बुझा देती है
छलनी है तुम्हारा ह्रदय 
क्योकि ये आहत होता रहता है
कभी सोचा है
सीने के इस मध्य भाग को 
अनाहत चक्र कहते है
तो बस....
अब से मान जाओ कि 
अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता
व्यर्थ है तुम्हारा भय 

टिप्पणियाँ

  1. अब से मान जाओ कि
    अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता
    व्यर्थ है तुम्हारा भय ---बहुत खूब रचना है, शानदार लेखन है।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. अब से मान जाओ कि
    अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता
    व्यर्थ है तुम्हारा भय !
    पल पल आहत होते हृदय के लिए संजीवन हैं ये पंक्तियाँ ! सोच रही हूँ, जो अनाहत को आहत करने का प्रयत्न करते हैं उनको ईश्वर कैसे क्षमा कर देते हैं ?

    जवाब देंहटाएं
  4. तुम्हारे संवेगो के चलते
    भय की गुंजन से
    बस वो एक अनवरत स्पंदन में है
    अनियंत्रित रुप से धड़कती
    तुम्हारी धड़कने तुम्हे डरा देती है ।

    सच ही होता है ऐसा । बहुत गहन अभिव्यक्ति ।।

    इस ब्लॉग को कैसे फॉलो करें ? कुछ नज़र नहीं आ रहा ।

    जवाब देंहटाएं
  5. अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता...
    बहुत बढ़िया!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

धागों की गुड़िया

एक दिन एक आर्ट पेज मेरे आगे आया और मुझे बहुत पसंद आया । मैंने डीएम में शुभकामनाएं प्रेषित की और उसके बाद थोड़ा बहुत कला का आदान प्रदान होता रहा। वो मुझसे कुछ सजेशन लेती रही और जितना मुझे आता था, मैं बताती रही। यूँ ही एक दिन बातों बातों में उसने पूछा कि आपके बच्चे कितने बड़े है और जब मैंने उसे बच्चों की उम्र बतायी तो वो बोली....अरे, दोनों ही मुझसे बड़े है । तब मैंने हँसते हुए कहा कि तब तो तुम मुझे आंटी बोल सकती हो और उसने कहा कि नहीं दीदी बुलाना ज्यादा अच्छा है और तब से वो प्यारी सी बच्ची मुझे दीदी बुलाने लगी। अब आती है बात दो महीने पहले की....जब मैंने क्रोशिए की डॉल में शगुन का मिनिएचर बनाने की कोशिश की थी और काफी हद तक सफल भी हुई थी। उस डॉल के बाद मेरे पास ढेरों क्वेरीज् आयी। उन सब क्वेरीज् में से एक क्वेरी ऐसी थी कि मैं उसका ऑर्डर लेने से मना नहीं कर सकी । यह निशिका की क्वेरी थी, उसने कहा कि मुझे आप ऐसी डॉल बनाकर दीजिए । मैंने उससे कहा कि ये मैंने पहली बार बनाया है और पता नहीं कि मैं तुम्हारा बना भी पाऊँगी कि नहीं लेकिन निशिका पूरे कॉंफिडेंस से बोली कि नहीं,