सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

एकाकी बचपन

         कहते है बच्चें भगवान का रुप होते है.....निसंदेह होते है, क्योकि दिल खोलकर हँसते है, रोते है, झगड़ते है और फिर गले मिल लेते है। बचपन बहुत प्यारा होता है,मस्ती भरा होता है.....लेकिन रुकिये..... हर बच्चे के साथ ऐसा नहीं होता। कुछ बच्चों का बचपन बहुत एकाकी होता है और मैं उनमे से एक हूँ लेकिन मेरी खुशक़िस्मती यह है कि मैने कभी एकाकीपन को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया,बल्कि मैंने कभी उसे समझा ही नहीं या फिर ये मान लिजिये कि मैं कभी इतनी बड़ी ही न हुई कि 'एकाकी' शब्द का विश्लेषण आपको समझा सकू,आज भी मेरे मन का वो एकाकी बच्चा निश्चिंतता के साथ मेरे अंदर बैठा है और शायद इसीलिये मैं कभी बोर नहीं हुई, मुझे कभी सौ लोगो का साथ नहीं चाहिये होता, समय व्यतीत करने के लिये। मेरे साथ ईश्वर का आशिर्वाद हमेशा रहा है शायद इसलिए ये एकाकीपन मुझे कभी न खला, लेकिन हाँ..... ऐसे बच्चों की पीड़ा मैं समझ सकती हूँ। 
     हम भारतीय परिवारों में अक्सर होता क्या है कि हम बच्चों को बड़े होने तक बच्चा समझते रहते है।  हम नहीं समझ पाते कि उनकी भी भावनाएं होती है जिन्हें हम गाहे बगाहे आहत कर देते है और एक कच्ची मिट्टी पर पड़े ये निशान हमेशा अपनी छाप छोड़ देते है।  एक पाँच साल का बच्चा अपनी मासूमियत में आकर कुछ गलत हरकत कर देता है, उस वक्त न केवल हम हँसते है बल्कि परिवार वालों के सामने दुबारा उस बच्चें से बुलवाते है और सब मिलकर हँसते है........ कभी सोचा है, बच्चा उस वक्त क्या सोचता होगा... शुरू में तो वो भी खुश ही होता है सबको हँसते देखकर, लेकिन जब यह बात दोहराई जाने लगती है तो वो थोड़ा असहज होने लगता है..... हम सोचते है कि पाँच साल का बच्चा थोड़ी मजाक समझता है।  हाँ.... भले ही वो मजाक न समझता हो लेकिन उस पर सब हँस रहे है ये वो समझ जाता है और वो धीरे धीरे अपने आप में सिमटने लगता है। यह छाप उन पर जीवन भर के लिये पड़ जाती है।  वो कभी अपने आप में आत्मविश्वास नहीं ला पाते जब तक कि कोई उन्हें उनकी विशेषताओं के बारे मे न सिर्फ बताये बल्कि एक जौहरी की तरह तराशे भी।
    लेकिन ऐसा 'कोई' मिलना आसान भी तो नहीं होता और ये बच्चें भटकते रहते है उस स्नेह और अपनेपन की तलाश में दरबदर....कि ऐसा कोई मिल जाये तो उन्हें खुद से मिला दे और यकीन मानीये स्नेह की खाद मिलते ही ये बच्चे ऐसे निखरते है कि जमाना दंग रह जाता है....... मेरा ईश्वर मेरी हर बात सुनता है तो आज मैं दुआ करूँगी कि हर उस बच्चें को अपना 'कोई' मिल जाये ,जिसकी तलाश में वो भटक रहा है ताकि वो अपनी जिंदगी की राह पर आगे बढ़ सके ।
     अनुरोध करूँगी आप सबसे कि बच्चा है, समझकर बच्चें की भावनाओं का मजाक न कभी खुद उड़ाये और न कभी उड़ने दे...... उन्हें सिर्फ और सिर्फ स्नेह की जरुरत है और यह बात मेरे अंदर का एकाकी बच्चा कह रहा है।

टिप्पणियाँ

कविता रावत ने कहा…

सच बच्चा है यह सोच कुछ भी बोलते रहना कम आघात नहीं हो सकता, .....
बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
सही कहा है पर ये बात भी बहुत देर में समझ आती है ...
अच्छा आलेख ...
आत्ममुग्धा ने कहा…
समय रहते कोई बात मानव मन नहीं समझ पाता

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...