पिता
सिर्फ पिता होते हैं
एक समय में
एक ही किरदार होते हैं
वे पूरी तरह से
सिर्फ पिता होते हैं
वे पिघल के
बरसते नहीं हैं
बहुत कुछ सहते हैं
लेकिन
कभी कुछ भी
कहते नहीं हैं
पिता
सिर्फ पिता होते हैं
उन्हे लोरी नहीं आती
सुलाने को
लेकिन
बातें सार्थक आती हैं
आँखें खोल
दुनियाँ दिखाने को
माँ मारती हैं
धरती को
जब ठोकर खाकर गिर जाते हैं
लेकिन
पिता....
ठोकर खाकर सँभलना सीखाते हैं
वे मौन रहते हैं
हमारे सपने सजाते हैं
आँखों में अपनी
भविष्य हमारा
बुनते हैं
पिता
सिर्फ पिता होते हैं
जीवन भर
एक ही किरदार
में होते हैं
लेकिन
जब हाथ छोड़
चली जाती हैं 'माँ'
तो
ये पिता
माँ भी बन जाते हैं
टिप्पणियाँ
सादर अभिवादन...
आप आई..अच्छा लगा..
आभार आपको.. आते रहिएगा..
हर मंगलवार को हम एक विषय देते हैं..
उस विषय को आधार मानकर एक कविता लिखनी होती है
वे सब कविताएँ आनेवाले सोमवार को प्रकाशित की जाती है
आप आज का अंक देखिये.. विषय इन्सानियत पर कविताएँ प्रकाशित हुई है... शायद आपको हमारा ये प्रयास अच्छा लगे..
पुनः आभार..
सादर...