तुम चिढ़ते हो
मुझसे 
या 
मेरे वजूद से.....नहीं पता
लेकिन
जब भी मैं 
कुछ नया करती हूँ
तुम्हारा अहम
चोट खाता हैं
मैंने महसूस किया हैं
तुम्हारी जलन को
तुम्हारी प्रतिद्वन्दता को
तुम्हारी बेवजह की तर्कशक्ति को
हाँ.....
ये सच हैं कि तुम कहते कुछ नहीं
लेकिन 
घुमा फिरा कर आग ही तो उगलते हो
जानते हो तुम ?
उस आग में 
झुलस जाती हूँ मैं
और फिर...
अपने फंफोलों को सहलाते सहलाते
मैं फिर कुछ रच देती हूँ
और पुन: 
तुम जैसे लोग 
मेरी अच्छी 'क़िस्मत' पर
बधाईयाँ देने पहुँच जाते हैं
और मैं.....
मुस्कुरा देती हूँ.....
उन फंफोलों को देखकर 
जो शायद तुमने नहीं देखे
मैंने सहयोग नहीं माँगा
संदेह नहीं
तुमने कभी दिया भी नहीं 
मैंने हमेशा तुम्हारा हौसला बढ़ाया
लेकिन....
तुमने मुझे कभी सराहा नहीं
और 
यही सराहने की चाहत
मेरे वजूद को ठोस करती गयी
इसलिये.....
मुझे 
मन ही मन 
ना चाहने वालों
शुक्रिया तुम सभी का
क्योकि 
ये तुम्हारी चिढ़ ही हैं
जो रंग ला रही हैं 
#चिढ़ते_रहो 
टिप्पणियाँ
बहुत बढ़िया रचना