सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

चिढ़ते रहो

तुम चिढ़ते हो
मुझसे 
या 
मेरे वजूद से.....नहीं पता
लेकिन
जब भी मैं 
कुछ नया करती हूँ
तुम्हारा अहम
चोट खाता हैं
मैंने महसूस किया हैं
तुम्हारी जलन को
तुम्हारी प्रतिद्वन्दता को
तुम्हारी बेवजह की तर्कशक्ति को
हाँ.....
ये सच हैं कि तुम कहते कुछ नहीं
लेकिन 
घुमा फिरा कर आग ही तो उगलते हो
जानते हो तुम ?
उस आग में 
झुलस जाती हूँ मैं
और फिर...
अपने फंफोलों को सहलाते सहलाते
मैं फिर कुछ रच देती हूँ
और पुन: 
तुम जैसे लोग 
मेरी अच्छी 'क़िस्मत' पर
बधाईयाँ देने पहुँच जाते हैं
और मैं.....
मुस्कुरा देती हूँ.....
उन फंफोलों को देखकर 
जो शायद तुमने नहीं देखे
मैंने सहयोग नहीं माँगा
संदेह नहीं
तुमने कभी दिया भी नहीं 
मैंने हमेशा तुम्हारा हौसला बढ़ाया
लेकिन....
तुमने मुझे कभी सराहा नहीं
और 
यही सराहने की चाहत
मेरे वजूद को ठोस करती गयी
इसलिये.....
मुझे 
मन ही मन 
ना चाहने वालों
शुक्रिया तुम सभी का
क्योकि 
ये तुम्हारी चिढ़ ही हैं
जो रंग ला रही हैं 
#चिढ़ते_रहो 




टिप्पणियाँ

आत्ममुग्धा ने कहा…
बहुत आभार 🙏🏼
कविता रावत ने कहा…
यही सिद्धांत रखना चाहिए कि अपना काम करते चलो। कौन क्या सोचता है करता है यह देखते रहो तो फिर देखने के अलावा इंसान कुछ नहीं कर पाता।
बहुत बढ़िया रचना
होता है पुरुष मानसिकता में ऐसे ... पर अपना विश्वास और द्रिड निश्चय जरूरी है आगे बढ़ने को ....
आत्ममुग्धा ने कहा…
धन्यवाद, लेकिन ऐसे लोगों की जमात में पुरुष नहीं महिलायें ज्यादा हैं......मुझे अफ़सोस हैं कि यह सच हैं
आत्ममुग्धा ने कहा…
बिल्कुल सही कहा आपने...आपका यहाँ आने के लिये धन्यवाद 🙏🏼

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...