बात कुछ दिन पहले की है
चोट लगी थी हाथ पर
हलकी सी चोट थी
इसलिए मैं मौन थी
ना दर्द था, ना दर्द का अहसास
कुछ दिन बाद
फिर चोट लगी
उसी स्थान पर
थोड़े समय दर्द हुआ
मैं मुस्कुराकर रह गई
बात आई-गई हुई
मैं अपने कामो में व्यस्त हुई
अचानक ;
एक दिन फिर वही दुखती नस
पुनः दबाव में आई
इस बार हलकी सी आह भी बाहर आई
मैंने भुलाने की कोशिश की
लेकिन इस बार
दर्द कुछ ज्यादा था
शायद मेरी सहनशक्ति की परीक्षा थी
जीवन की प्राथमिकताओ की समीक्षा थी
थोडा समय लगा दर्द भुलाने में
अपनों के घावों को
सहलाते-सहलाते
मरहम लगाते , अपने ही घाव की सुध-बुध ना रही
शायद इसीलिए
कल बिना चोट के ही
दुखने लगा हाथ, नसें बुदबुदाने लगी
रक्त दर्द से उबाल खाने लगा
देखा , तो हाथ में नासूर बन चूका था
चुक गई मैं, भूल गई मैं
चोट पे चोट सहती गई
बेवजह यूं ही बहती गई
पहली चोट पे संभली होती
ना होता नासूर
और ना मिलता दर्द बिना कसूर
टिप्पणियाँ
अनु
भोत सोवणी लगी थारी कविता :)