क्यो इंतजार करते हम खुशियों का
क्यो तकते राह उत्सवों की
क्यो साल भर बैठ
इंतजार करते जन्मदिन का
क्यो नहीं मनाते हम हर एक दिन को
क्यो नहीं सुबह मनाते
क्यो शामें उदास सी गुजार देते
क्यो नहीं रात के अंधेरों को हम
रोशनाई से भरते
कभी अलसुबह उठकर सुबह का उत्सव मनाना
देखना कि कैसे
आसमान सज उठता है
चहकने लगते है पक्षी
खिल उठता है डाल का हर पत्ता
अगुवाई होती है सुरज की
वंदन होता है उसके प्रखर तेज का
तुम उस तेज को मनाना सीखो
कभी शाम भी मनाओ
ढ़लते सुरज को देखो
उसके अदब को देखो
शाम-ए-जश्न के लिये
खुद विदा कह जाता है
गोधूलि की धूल को देखो
घर लौटते पंछियों को देखो
ऊपर आसमान में
विलीन होती सिंदुरी धारियों को देखो
आरती के समय ह्रदय में उठते कंपन को देखो
देखो .....हर रोज शाम यूँ ही सजती है
अब....रात के अंधेरों को मनाओ
ये रातें तुम्हारे लिये ख्वाब लेकर आती है
इन्हे परेशान होकर मत जिओ
सुकून से रातें रोशन करो
बोलते झिंगुरों के बीच तुम
जरा चाँद से बाते करो
उसकी कलाओं को निहारो
सोचो जरा.....
सदियों से ये चाँद हर रात को उत्सव की तरह मनाता है
तुम भी उत्सव मनाना सीखो
कभी समंदर की आती जाती लहर को देखो
कभी झरनों के जुनून को देखो
बारिश की पहली बुंद को देखो
जो तपती धरती को तृप्त करने आती है
बरखा की इन बुंदों का नृत्य उत्सव ही तो है
तुम भी मनाओ हर दिन
जीवन का उत्सव
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'