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मनुहार

लंच बहुत बढ़िया रहा....... मेरे बड़े से परिवार के लगभग सभी सदस्य हमारे साथ थे....लगभग 60 लोग। शाम चार बजे तक धीरे धीरे सब लोग चले गये। पीछे का बिखरा सब बाइंड अप करने हम दोनो वही रुक गये।  हम दो दिन रुकने वाले थे इसलिए पता था कि मैं आराम से साफ सफाई कर सकती हूँ । मैंने आराम से सामने वाले खड़े विशालकाय पहाड़ को भरपूर निहारा और तब तक देखती रही जब तक कि अंधेरा नहीं घिर आया। नयी जगह थी इसलिए नींद बहुत अच्छी नहीं आयी। अलसुबह ही मैं उठकर बाहर आ गयी और चहचहाने की आवाज मुझे स्फूर्ति दे गयी। मैंने चाय बनायी और स्विमिंग पूल के पास आकर बैठ गयी और सुर्योदय तक बैठी रही। 
     नाश्ते के लिये हम लोग मेथी के पराठें लाये थे और ब्रेड भी थी । एक और चाय के साथ उन्हे पेट में जगह दी। अभी कुछ छोटे मोटे काम बाकी थे घर के ....तो उन्हे पूरा करने कुछ लोग आ गये। पास ही पाँच सौ की आबादी वाला गाँव है वहां से मजदूर आये थे घास काटने जिनमे से तीन महिलाएं थी। एक महिला से मैंने घर में झाड़ू पौछा लगवाया और उसके परिवार के बारे में बात की। हालांकि मुझे मराठी बोलना नहीं आता और उसे हिंदी बोलना नहीं आता लेकिन हमारा वार्तालाप बहुत आत्मीय और सुखद रहा। काम करके वो फिर से घास उखाड़ने चली गयी। 
        लगभग घंटे भर बाद वो फिर आयी और दरवाजे पर मुझसे रोटी के लिये पुछा। मैं असमंजस में थी कि मेरे पास तो रोटी है ही नहीं लेकिन तभी मुझे थेपला और ब्रेड का ख्याल आया और मैं फ्रिज से निकालकर लायी और उसको दिखाते हुए कहा कि ये चलेगा । 
     अब वो हँसी और मुझसे बोली ...."मी तुला विचारत आहे" 
मतलब मैं तुमसे पूछ रही हूँ कि तुमने खाना नहीं बनाया होगा न , तो मैं तुम्हे रोटी लाकर दूँ क्या ? हम लोग अभी खाना खाने बैठ रहे है ।
     यह सुनकर मैं एकदम विभोर हो गयी कि इससे बेहतर क्या हो सकता है। एक सरल ह्रदय आदिवासी महिला अपनी भाकरी अपना खाना आपके साथ बांटना चाह रही है , क्युकि वो जानती है आपके पास खाना बनाने की पूरी सुविधा नहीं है । मैं बहुत प्यार से उससे बोली कि मैंने अभी अभी खा लिया है और वो उसी सरलता से हँसते हुए चली गयी अपनी अन्य दो साथियों के पास। 
      वो दिन भर काम करती रहती और शाम को मुझे विदा कहकर चली गयी। रात मुझे थोड़ी अच्छी नींद आयी । सुबह मैं सब निपटा रही थी क्योकि आज हमे निकलना था। कल की तरह आज भी वो तीनों आयी और घास उखाड़ने लगी। 
      लगभग साढ़े दस बजे वो तीनों नाश्ता करने बैठी....मैंने दूर से उन्हे देखा। मैंने फ्रिज से ब्रेड, चटनी,फाफड़ा और दूध निकाला और उनके पास गयी । तीनों खुशी से जैसे चहक उठी और अपने अपने टीफिन खोलकर मेरे आगे कर दिये। मैंने मुस्कुराकर कहा कि अभी तो मैं जा रही हूँ तुम लोग ये खाओ । फिर भी वे लोग मानी नहीं और मैं भी उनके साथ टिककर बैठ गयी। चावल की रोटी और करेले की सब्जी का एक कौर लिया इतने में दूसरी ने सूजी का हलवा वाला टीफिन खोल दिया। मैंने हलवा भी खाया। उन लोगों ने अपने परिवार के बारे में बताया, अपने बच्चों के बारे में बताया। मेरे बच्चों के बारे में मुझसे पूछा। ये सब बाते कर मैं खड़ी हुई कि हम लोग निकलेंगे तो उसने अपना पूरा टीफिन मेरे आगे कर दिया....और कहा कि रास्ते में खा लेना। ऐसी मनुहार ईश्वर तुल्य थी मेरे लिये। मैंने कहा कि नहीं, तुम खाओ , अगली बार आऊँगी तब मेरे लिये अलग से बनाकर लाना । 
    मैंने उनकी फोटो ली....जितनी खुश फोटो में थी उतनी ही खुश वो असल में भी थी। आते समय मैं थोड़ा सा मुड़ी और उसको बोला कि कल तुम मुझे खाना पुछने आयी न, मुझे बहुत अच्छा लगा। तुम लोग बहुत अच्छी हो। 
      मेरा वो दो दिन का स्टे यादगार बन गया । 

टिप्पणियाँ

मन की वीणा ने कहा…
वाह!सुखद सुंदर।
सबसे बड़े है मानवता और प्रेम . जिन्हें हम छोटे समझते हैं वे अक्सर हमसे बड़े सिद्ध होते हैं. सुन्दर प्रसंग.
आत्ममुग्धा ने कहा…
बहुत शुक्रिया सखी
Anuradha chauhan ने कहा…
बहुत ही बेहतरीन।

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