माना कि मुखरता स्वभाव है
लेकिन कभी कभी
इसे अंदर की ओर समेटना होता है
अक्सर हम
बाहरी दुनिया में
रमने लगते है
लोगों को जानने समझने की चेष्टा में
कही न कही
खुद को समझ से परे कर देते है
निकल जाते है दूर
एक ऐसी राह पर
जहाँ जमावड़ा होता है
तथाकथित अपनों का
जहाँ हम सबको पाते है
सिवाय खुद के
खुद को भुलकर भी
मन संतुष्ट होता है
कि हम अपनों के बीच है
लेकिन एक वक्त पर इस भ्रम को टूटना होता है
अपनों पर आश्रित होने के बजाय
हमे खुद को पुकारना होता है
स्वयं को पाना होता है
दूर गयी राह से लौट आना होता है
खुद को भीतर ही भीतर समेटना होता है
कछुए की भाँती एक खोल में,
एक मजबूत खोल में....
अपने स्वं को स्थापित करना होता है
हमे पाना होता है खुद को
हमे अन्तर्मन की ओर मुखर होना होता है
टिप्पणियाँ
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आभार
सादर..
कभी दृश्यजग, कभी चित्तवत।
सुन्दर ज्ञान भरी रचना