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अन्तर्मन की ओर

माना कि मुखरता स्वभाव है
लेकिन कभी कभी
इसे अंदर की ओर समेटना होता है
अक्सर हम 
बाहरी दुनिया में
रमने लगते है
लोगों को जानने समझने की चेष्टा में
कही न कही
खुद को समझ से परे कर देते है
निकल जाते है दूर 
एक ऐसी राह पर
जहाँ जमावड़ा होता है
तथाकथित अपनों का
जहाँ हम सबको पाते है
सिवाय खुद के
खुद को भुलकर भी 
मन संतुष्ट होता है 
कि हम अपनों के बीच है
लेकिन एक वक्त पर इस भ्रम को टूटना होता है
अपनों पर आश्रित होने के बजाय
हमे खुद को पुकारना होता है
स्वयं को पाना होता है
दूर गयी राह से लौट आना होता है
खुद को भीतर ही भीतर समेटना होता है
कछुए की भाँती एक खोल में,
एक मजबूत खोल में....
अपने स्वं को स्थापित करना होता है
हमे पाना होता है खुद को
हमे अन्तर्मन की ओर मुखर होना होता है

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 26 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    जवाब देंहटाएं
  2. अपने स्व को स्थापित करना होता है
    आभार
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  3. कभी सिंह से, कभी कूर्मवत,
    कभी दृश्यजग, कभी चित्तवत।

    जवाब देंहटाएं

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