सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

उन्मुक्तता

मैं संपूर्ण नहीं थी
पर मैं सही थी
बहुत सी जगहों पर
मेरा सही 
तुम्हारे लिये गलत था
तुम्हारा सही मेरे लिये गलत था
सही, गलत नहीं हो पाया
गलत, सही नहीं हो पाया
और 
हम खड़े रहे 
अपने अपने छोर को पकड़े
ना डोर तुमने छोड़ी
ना डोर मैंने छोड़ी
बंधी रही मैं
कही न कही उसी छोर से
लेकिन जानती हूँ मैं
मुझे किनारे पर ही रहना है
जब चाहूँ तब डोर छोड़ सकू
मुझे डोर को पकड़कर 
तुम तक आने की जरुरत नहीं
अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर 

टिप्पणियाँ

Sweta sinha ने कहा…
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ अगस्त २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
yashoda Agrawal ने कहा…
शानदार..
आभार
सादर..
Anupama Tripathi ने कहा…
सुंदर अभिव्यक्ति |
वाह ..... स्वास्तित्व का होना भी ज़रूरी । अन्यथा स्वयं को मिटा कर संपूर्णता नहीं मिल सकती ।बेहतरीन ।
सत्य के कई पक्ष होते हैं, अपना सत्य दूसरे का भी हो सकता है। सुन्दर भाव।
SANDEEP KUMAR SHARMA ने कहा…
अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर ---वाह शब्दों और मनोभावों का ऐसा सुंदर तारतम्य...। अच्छी और बेहद गहनतम रचना...।
Pammi singh'tripti' ने कहा…
सुंदर शब्द भाव से परिपूर्ण रचना।
Sudha Devrani ने कहा…
सही, गलत नहीं हो पाया
गलत, सही नहीं हो पाया
तुम्हें मुबारक तुम्हारे विचार ....
अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर
और काफी है एक छोर से दूसरे छोर का यह जुड़ाव....दोनों के अस्तित्व के साथ
वाह!!!
लाजवाब सृजन।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

काम ही पूजा है

हर रोज सुबह की सैर मुझे पूरे दिन के लिये शारीरिक मानसिक रूप से तरोताजा करती है। सैर के बाद हम एक भैयाजी के पास गाजर, बीट, हल्दी, आंवला ,अदरक और पोदीने का जूस पीते है, जिसकी मिक्सिंग हमारे अनुसार होती है। हम उनके सबसे पहले वाले ग्राहक होते है , कभी कभी हम इतना जल्दी पहूंच जाते है कि उन्होने सिर्फ अपना सब सामान सैट किया होता है लेकिन जूस तैयार करने में उन्हे पंद्रह मिनिट लग जाते है, जल्दबाजी में नही होती हूँ तो मैं जूस पीकर ही आती हूँ, वैसे आना भी चाहू तो वो आने नहीं देते , दो मिनिट में हो जायेगा कहकर, बहला फुसला कर पिलाकर ही भेजते है। उनकी अफरा तफरी और खुशी दोनो देखने लायक होती है।      आज सुबह भी कुछ ऐसा ही था, हम जल्दी पहूंच गये और उन्होने जस्ट सब सैट ही किया था , मैं भी जल्दबाजी में थी क्योकि घर आकर शगुन का नाश्ता टीफिन दोनों बनाना था। हमने कहां कि आज तो लेट हो जायेगा आपको, हम कल आते है लेकिन भैयाजी कहाँ मानने वाले थे । उन्होने कहा कि नयी मशीन लाये है , आपको आज तो पीकर ही जाना होगा, अभी बनाकर देते है। मुझे सच में देर हो रही थी लेकिन फिर भी उनके आग्रह को मना न कर स...

पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

पुस्तक समीक्षा

पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प किताब पढ़ी, जिसने न केवल सोचने पर मजबूर किया बल्कि झकझोरा भी।       किताब है प्रवासी भारतीय समाज की स्थिति पर जो डॉलर समेटने के मायाजाल में है। हालांकि जब किताब लिखी गयी थी तब से अब तक में कुछ परिवर्तन तो निसंदेह हुए है , अमेरिका में बसने का सपना आज की नयी पीढ़ी में उतना चरम पर नहीं है जितना तात्कालिन समय में था और यह एक सुखद परिवर्तन है।          पिछले दिनों मैं भी कुछ समय के लिये अमेरिका में थी शायद इसीलिये इस किताब से अधिक अच्छे से जुड़ पायी और समझ पायी। एक महीने के अपने अल्प प्रवास में हालांकि वहाँ का जीवन पूरी तरह नहीं समझ पायी पर एक ट्रेलर जरुर देख लिया। वहाँ रह रहे रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलते हुए कुछ बातें धूंध की तरह हट गयी।      यह किताब उस दौरान मेरे साथ थी लेकिन पढ़ नहीं पायी। जब भारत लौटने का समय आया तो मैंने यह किताब निकाली और सोचा कि 16 घंटे की यात्रा के दौरान इसे पढ़ती हूँ। समय और मौका दोनो इतने सटीक थे कि मैं एक सिटींग में ही 200 पन्ने पढ़ गयी। ऐसा लग रहा...