सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पुरुष दिवस

जानती हूँ मैं
मुश्किल होता है पुरुष होना
अपने कंधों पर हर भार ढ़ोना
आँसूओं को अंदर ही अंदर सींचना
नहीं मतलब किसी को तुम्हारे भावों से
क्योकि भावुक तो स्त्रीयां मानी जाती है
तुम्हे तो पुरुषत्व के साथ जीना है
एक गुरूर, एक दंभ, एक अहं
एक गढ़ी गढ़ाई परिभाषा है तुम्हारी
तुम जीना चाहते हो अपने मनोभावों को
लेकिन उंडेल नहीं पाते उन्हें
क्योकि तुम पुरुष हो
न जाने कितने विचार
रोज मरते है तुम्हारे अंदर
तुम उन्हे जीवनदान देना चाहते हो
लेकिन घोट देते हो अपने ही अंदर
क्योकि तुम नहीं दिखा सकते
अपना नर्म, नाजुक और संवेदनशील मन
तुम भी मापना चाहते हो आसमान
तुम भी उड़ना चाहते हो परिंदों की तरह
तुम भी हवाओं की थिरकन चाहते हो
कभी कभी
तुम विरोध भी करना चाहते हो
लेकिन तुम नहीं निकाल सकते मोर्चा
क्योकि तुम पुरुष हो
तुम्हारी हकीकत की जमीं सख्त है
लेकिन सुनो पुरूष
आधी आबादी तुम्हें बहुत प्यार करती है
तुम प्रतिद्वंदी नहीं पूरक हो
हम मिलकर पूर्ण होते है
ना तुम्हारा कोई दिन
ना मेरा कोई दिन
हर दिन हमारा हो।

संगीता
#अंतर्राष्ट्रीय_पुरुष_दिवस

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

धागों की गुड़िया

एक दिन एक आर्ट पेज मेरे आगे आया और मुझे बहुत पसंद आया । मैंने डीएम में शुभकामनाएं प्रेषित की और उसके बाद थोड़ा बहुत कला का आदान प्रदान होता रहा। वो मुझसे कुछ सजेशन लेती रही और जितना मुझे आता था, मैं बताती रही। यूँ ही एक दिन बातों बातों में उसने पूछा कि आपके बच्चे कितने बड़े है और जब मैंने उसे बच्चों की उम्र बतायी तो वो बोली....अरे, दोनों ही मुझसे बड़े है । तब मैंने हँसते हुए कहा कि तब तो तुम मुझे आंटी बोल सकती हो और उसने कहा कि नहीं दीदी बुलाना ज्यादा अच्छा है और तब से वो प्यारी सी बच्ची मुझे दीदी बुलाने लगी। अब आती है बात दो महीने पहले की....जब मैंने क्रोशिए की डॉल में शगुन का मिनिएचर बनाने की कोशिश की थी और काफी हद तक सफल भी हुई थी। उस डॉल के बाद मेरे पास ढेरों क्वेरीज् आयी। उन सब क्वेरीज् में से एक क्वेरी ऐसी थी कि मैं उसका ऑर्डर लेने से मना नहीं कर सकी । यह निशिका की क्वेरी थी, उसने कहा कि मुझे आप ऐसी डॉल बनाकर दीजिए । मैंने उससे कहा कि ये मैंने पहली बार बनाया है और पता नहीं कि मैं तुम्हारा बना भी पाऊँगी कि नहीं लेकिन निशिका पूरे कॉंफिडेंस से बोली कि नहीं,