सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

न भाती यह दुनिया

मैं कभी दुनियादारी न सीख पाई, कभी किसी ने सिखाया भी नहीं ,जो देखा वही जाना और वही समझा।  बात अजीब लग सकती है कि चार दशक इस दुनिया में बिताने के बाद भी मैं इसे समझ न पायी।
    अपने आस पास के लोगो को मैंने हमेशा अपने जैसा ही जाना, जैसी पारदर्शी मैं खुद वैसी ही इस दुनियां को समझती, बात हास्यास्पद लग सकती हैं और है भी कि भला ऐसा भी हो सकता है।
      मैं एक कलाप्रेमी व्यक्तित्व हूँ और निश्छल भाव से कला की ओर आकर्षित होती हूँ, शायद यही कारण हैं कि लोगो को देखने का दुसरा नजरिया मै डेवलैप कर ही न पायी।
      पिछले कुछ सालों में बहुत कुछ देखा, जाना, समझा और अलग दृष्टिकोण भी अपनाया, लेकिन जो दुनियां मुझे पहले खुबसुरत लगा करती थी, वही अब मुझे दोगली लगने लगी,खोखले होते रिश्ते, चाटुकारिता और चाशनी में भीगी अर्थहीन बातें, स्वार्थ पर टिके संबोधन सब उल्टा पुल्टा। अब मुझे लगने लगा है कि मेरा पहला वाला नजरिया ही सही है, भले मैं  दुनियादारी न जानती थी पर जिंदगी मुझे खुबसुरत लगती थी वैसे अब भी यह खुबसुरत है ,अगर आप कला में  रमे है तो । अगर कला ना हो तो शायद यहाँ साँस लेना भी दूभर।
मेरी बातों का सार यही है कि अपने जीवन को बस एक ध्येय की ओर लेकर चले, इस जीवन को तो न आज तक कोई समझ पाया है और न कोई समझ सकेगा, आप सिर्फ अपनेआप को समझे, दुनियादारी या दूसरों को समझना आपके स्वयं के अस्तित्व के सामने निरर्थक है । हमे लगता है कि हम ज्ञान अर्जित कर रहे है, लेकिन यकीन मानिये ज्ञान आपको तनाव ही देगा।  आप सहज, सरल और मनमौजी बने रहिये, जीवन के उतार चढ़ाव में बहते रहिये।
     लेकिन ध्यान रखे, सरलता और पारदर्शिता इतनी भी ना हो कि कोई भी आपका फायदा उठा ले।  अपनी छठी इंद्रिय को हमेशा सक्रिय रखे और बाहरी दुनिया के साथ तटस्थ रहते हुए अपने अन्तर्मन के समुद्र में गौते लगाते रहिये, बहुत कुछ ऐसा है आपमे जिससे आप अनजान है।
       

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...