यूँ तो ईश्वर को लेकर मेरी कोई अवधारणा नहीं, पर वो है और मुझसे प्रेम करता है,मेरी हर कारगुज़ारी पर उसकी पैनी नजर रहती है,उसके सीसीटीवी में कैद मेरी हर गतिविधि होती है, यह जानते बूझते भी मैं सतर्क नहीं रहती क्योकि मुझे पता है, मेरा ईश्वर मुझसे प्रेम करता है और यह दावा मैं इसलिये कर सकती हूँ क्योकि मैने उसे पाने के कभी प्रयास ही नहीं किये, लेकिन फिर भी वो हर वक्त मेरे साथ उपस्थित रहा।
मै नहीं जानती कि मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक लेकिन हाँ, मैं आध्यात्मिक हूँ पर आश्चर्य की बात यह है कि मुझे अध्यात्म की गहराईयों का भी न पता.......न मुझे शास्त्रों का ज्ञान ना गूढ़ बातों की जानकारी लेकिन फिर भी मैं ईश्वरीय शक्ति को महसूस करती हूँ, हर पल,और शायद यही अध्यात्म है और अगर यह अध्यात्म नहीं है तो शायद मै आध्यात्मिक भी नहीं हूँ। बहुत बार उत्सुकता होती है इसे जानने की, समझने की..... पर फिर डर लगता है कि ज्ञान आते ही कही मेरा ईश्वर मुझसे दूर न हो जाये क्योकि जो मुझे सहज उपलब्ध है, उसे और अधिक पाने का प्रयास क्यो ?ज्ञान की अवधारणाओं और तर्क वितर्क से परे मन ईश्वर के ज्यादा नजदीक होता है, नन्हें बच्चें इसका बेहतर उदाहरण है,शायद इसीलिये जितना प्रेम मैं अपने ईश्वर से करती हूँ उससे कही अधिक वो मुझसे करता है।
यहाँ मै प्रेम और प्यार में फर्क बता देती हूँ...... मेरा मानना है कि प्रेम में आप समर्पित तो होते है पर बंधन से मुक्त रहते है, जबकि प्यार आपको बाँधता है, प्यार में आप एकाधिकार चाहते है, अपने प्यार को आप किसी के साथ बाँटना नहीं चाहते, उस पर आप अपनी तानाशाही चाहते है जबकि प्रेम.......यह तो सागर है, यह न आपको बाँधता है और न आप इसको बाँधते है,लेकिन रहते आप इसके इर्दगिर्द ही है, बिल्कुल ऐसे जैसे अहमद फराज ने कहा है....
बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की 'फ़राज़'
न उसने क़ैद में रखा न हम फरार हुए
अक्सर लोग कहते है कि हम ईश्वर को प्रेम करते है, उसे पाने के, खोजने के प्रयास करते है, मैं कहती हूँ बिना किसी प्रयास के मेरा ईश्वर मुझसे प्रेम करता है, लेकिन इसका मतलब भौतिक सुख सुविधाओं के होने से न है, हर किसी के जीवन में संघर्षों और सुख दुःख का आवागमन बना रहता है, ईश्वर आपसे प्रेम करता है इसका मतलब हर परिस्थिति में आप उसे अपने साथ महसूस करते हो, और यही मेरी नजरों में अध्यात्म है।
मै नहीं जानती कि मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक लेकिन हाँ, मैं आध्यात्मिक हूँ पर आश्चर्य की बात यह है कि मुझे अध्यात्म की गहराईयों का भी न पता.......न मुझे शास्त्रों का ज्ञान ना गूढ़ बातों की जानकारी लेकिन फिर भी मैं ईश्वरीय शक्ति को महसूस करती हूँ, हर पल,और शायद यही अध्यात्म है और अगर यह अध्यात्म नहीं है तो शायद मै आध्यात्मिक भी नहीं हूँ। बहुत बार उत्सुकता होती है इसे जानने की, समझने की..... पर फिर डर लगता है कि ज्ञान आते ही कही मेरा ईश्वर मुझसे दूर न हो जाये क्योकि जो मुझे सहज उपलब्ध है, उसे और अधिक पाने का प्रयास क्यो ?ज्ञान की अवधारणाओं और तर्क वितर्क से परे मन ईश्वर के ज्यादा नजदीक होता है, नन्हें बच्चें इसका बेहतर उदाहरण है,शायद इसीलिये जितना प्रेम मैं अपने ईश्वर से करती हूँ उससे कही अधिक वो मुझसे करता है।
यहाँ मै प्रेम और प्यार में फर्क बता देती हूँ...... मेरा मानना है कि प्रेम में आप समर्पित तो होते है पर बंधन से मुक्त रहते है, जबकि प्यार आपको बाँधता है, प्यार में आप एकाधिकार चाहते है, अपने प्यार को आप किसी के साथ बाँटना नहीं चाहते, उस पर आप अपनी तानाशाही चाहते है जबकि प्रेम.......यह तो सागर है, यह न आपको बाँधता है और न आप इसको बाँधते है,लेकिन रहते आप इसके इर्दगिर्द ही है, बिल्कुल ऐसे जैसे अहमद फराज ने कहा है....
बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की 'फ़राज़'
न उसने क़ैद में रखा न हम फरार हुए
अक्सर लोग कहते है कि हम ईश्वर को प्रेम करते है, उसे पाने के, खोजने के प्रयास करते है, मैं कहती हूँ बिना किसी प्रयास के मेरा ईश्वर मुझसे प्रेम करता है, लेकिन इसका मतलब भौतिक सुख सुविधाओं के होने से न है, हर किसी के जीवन में संघर्षों और सुख दुःख का आवागमन बना रहता है, ईश्वर आपसे प्रेम करता है इसका मतलब हर परिस्थिति में आप उसे अपने साथ महसूस करते हो, और यही मेरी नजरों में अध्यात्म है।
मैं जानती हूँ कि वो हर पल मुझे देख रहा है और तब मै अनायास ही एक मुस्कुराहट उसकी तरफ फेंक देती हूँ ,आखिर मेरा प्रेम है वो लेकिन मैं प्रेम दीवानी मीरा भी तो नही 😀😊
गहन, अर्थपूर्ण, विचारणीय आलेख ...
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
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