सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भ्रम

इन दिनों मन विचलीत सा है
चंचल सा रहने वाला ये मन
ना जाने क्युँ बेचैन सा है
एक तस्वीर सी उभरती है
दिलो दिमाग़ में
जो कई सवाल खड़े करती है
कुछ गफ़लत सी छाई रहती है
कुछ समझ सकूँ 
उससे पहले धुँधला जाती है
वो तस्वीर
असमंजस में हूँ कि
परिस्थितियों का एक सिलसिलेवार क्रम है
या फिर सिर्फ मेरे मन का भ्रम है 
मानती हूँ कि
मेरी छठी इन्द्रिय 
हैं कुछ ज्यादा ही सक्रिय
इसीलिये भ्रम मात्र तो मान नहीं सकती
सच हो नहीं सकता
कश्मकश में है मन
सोच रही हूँ
वक़्त पर सब छोड़ दूँ
समय की आँधी 
धुँधलका हटा देगी
और 
तस्वीर खुद-ब-खुद साफ़ दिख जायेगी
तब तक 
ऐ जिन्दगी ! 
तु और मैं गफ़लत में ही सही
थोड़ा जी लेते है।


टिप्पणियाँ

  1. जिंदगी तो जीना ही पड़ती अहि ... गज्लत में या आनद से आराम से ... पर मन मानता भी नहीं ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शायद इसी का नाम जिन्दगी है...... कभी खुली किताब तो कभी अबूझ पहेली

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

धागों की गुड़िया

एक दिन एक आर्ट पेज मेरे आगे आया और मुझे बहुत पसंद आया । मैंने डीएम में शुभकामनाएं प्रेषित की और उसके बाद थोड़ा बहुत कला का आदान प्रदान होता रहा। वो मुझसे कुछ सजेशन लेती रही और जितना मुझे आता था, मैं बताती रही। यूँ ही एक दिन बातों बातों में उसने पूछा कि आपके बच्चे कितने बड़े है और जब मैंने उसे बच्चों की उम्र बतायी तो वो बोली....अरे, दोनों ही मुझसे बड़े है । तब मैंने हँसते हुए कहा कि तब तो तुम मुझे आंटी बोल सकती हो और उसने कहा कि नहीं दीदी बुलाना ज्यादा अच्छा है और तब से वो प्यारी सी बच्ची मुझे दीदी बुलाने लगी। अब आती है बात दो महीने पहले की....जब मैंने क्रोशिए की डॉल में शगुन का मिनिएचर बनाने की कोशिश की थी और काफी हद तक सफल भी हुई थी। उस डॉल के बाद मेरे पास ढेरों क्वेरीज् आयी। उन सब क्वेरीज् में से एक क्वेरी ऐसी थी कि मैं उसका ऑर्डर लेने से मना नहीं कर सकी । यह निशिका की क्वेरी थी, उसने कहा कि मुझे आप ऐसी डॉल बनाकर दीजिए । मैंने उससे कहा कि ये मैंने पहली बार बनाया है और पता नहीं कि मैं तुम्हारा बना भी पाऊँगी कि नहीं लेकिन निशिका पूरे कॉंफिडेंस से बोली कि नहीं,