सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बसंत

इन फिरंगियों ने तो सिर्फ एक दिन को मोहब्बत के नाम किया था लेकिन हम हिन्दुस्तानियों ने तो पुरा वैलेन्टाईन वीक बना डाला और ना जाने किन किन दिनों का आविष्कार कर डाला जिसे शायद फिरंगी देशों में मनाया भी ना जाता हो ।
         इस पुरे वीक को मनाने के चक्कर में हम एक ऐसी जम़ात तैयार कर रहे है जिसे ना तो 'बसंत पंचमी' का पता है और ना ही ' बसंत ' के मर्म का ।
           बसंत......एक ऋतु ,जो अपने आप महसुस हो जाती है, जनवरी जाते ही फरवरी की गुलाबी सर्द हवाएँ एक दस्तक देती है , एक रुमानियत की , हवा में एक कशिश होती है , पेड़ों के पत्ते तक सज संवर उठते है , धुप भी मीठी सी लगती है ,बड़े होते दिन और छोटी होती रातें तरोताजा कर देती है, पक्षी भी चहक उठते है, सरसों की फसल झुमने लगती है और उस पर पड़ने वाली सुबह की किरणें सब कुछ धानी धानी कर देती है , यह आगाज़ होता है ऋतुराज का, शायद इसीलिये श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि ऋतुओं में मैं बसंत हुँ ।
         यह प्यार का मौसम है जनाब, लेकिन सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिये नहीं ,बसंत एक उत्सव है जिसमे नवजात से लेकर वयोवृद्ध तक शामिल होते है, और हाँ यह मौसम बहकने नहीं देता क्योकि माँ शारदे का आशिर्वाद  ही इसे एक उत्सव बनाता है।

     

टिप्पणियाँ

  1. ये दौर है ... अपना नष्ट हो रहा है दूसरों का तेजी से चाता जा रहा है .... बिना सोचे बिना जाने ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है.....आभार आपका यहाँ आने के लिये 🙏🏻

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

किताब

इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है।      मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद।      किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है।        हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ।        धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प