.......बस के हिचकोलों के साथ अपनी सांसों के उतार-चढ़ाव को संयत करते हुए हम आखिरकार अपने होटल जगजीत तक पंहुच ही गये । ठंड हमे कपकपां रही थी,हम जल्दी से अपने अपने कमरों में जाना चाहते थे । बच्चों का कमरा हमारे कमरे से लगकर ही था । बच्चों को मौसम का विकराल रूप बिल्कूल अच्छा नहीं लग रहा था ।
थोड़ी ही देर में हम सब रात के खाने के लिए dining hall में गये जो कि ऊपर की मंजिल पर था,वहाँ हम सभी साथी यात्रियों का आपस में परिचय हुआ । मुझे पता चला कि साथ वाली दोनो आंटी आपस में समधन हैं और बड़ी वाली आंटी जो कि ७५ वर्ष की है ,रिटायर्ड डाॅक्टर हैं,दुसरी आंटी म्युजिक टीचर है । मेरे बच्चों को दोनो आंटीज् बड़ी मस्त (उनकी भाषा में) लगी ।खाना बहुत लजीज़ था।हमे दुसरे दिन के कार्यक्रम के बारे में बताया गया ।
२२अप्रेल -
- सुबह का नाश्ता करने के बाद हम लोग माॅनेस्टरी देखने गये,जो कुछ ही कदमों की दूरी पर थी ।हमारे होटल से माॅनेस्टरी पास ही दिख रही थी ।हम आठ के समुह में थे और चढा़ई वाले रास्ते से चल पड़े । स्थानीय लोगो से रास्ता पूछते-पूछते हम बढ़ रहे थे,थोड़ी ही देर में हमारी सांस फूलने लगी और हम सब को अपने शारीरिक बल का अंदाजा स्वत: ही हो गया ।अब हमने छोटा रास्ता पकड़ा,जो सीढ़ियों वाला था । बेटी ने तुरंत कैमरा मुझे पकड़ा दिया और बोली कि "wow" कितना सुंदर रास्ता है । सच,यह एक संकरा सा ,पेड़ों से घिरा, खुबसूरत पथ था , यहाँ एक अलौकिक शांति फैली थी जो मुझे निर्वाण पथ जैसा अहसास करा रही थी । मैने खुब छायाचित्र खीचें ।
जब हम माॅनेस्टरी पंहुचे,हम थक चुके थे । लेकिन माॅनेस्टरी की खुबसूरती देख मेरी थकान फूर्र हो गई थी और पलक झपकते ही कैमरा मेरे हाथ में था । हम प्रांगण में गये,यह बहुत विशाल था....अंदर प्रार्थना हो रही थी,लग रहा था जैसे बहुत सारे लोग एक लय में ऊर्जा उत्पन्न कर रहे हो । हमने अंदर जाने की इजाजत मांगी,जो हमे मिल गई । अंदर का दृश्य अद्भुत था । सैकड़ों की संख्या में "लामा" कतारबद्ध थे और एक सुर में प्रार्थना कर रहे थे,हरेक के आगे एक किताब रखी थी । हमे देखकर भी , इनकी प्रार्थना में कोई विघ्न नहीं पड़ा और ना ही वे विचलीत हुए, हाँ नन्हे लामा, जो कि १२ से १६ वर्ष के बीच के होंगे, हल्की सी हँसी को अपने होठो पर ना लाने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे और इसमे नाकाम भी हो रहे थे । मैने भी चुपके से एक मुस्कूराहट उनकी ओर फेंक दी, आखिर निर्वाण के पथ पर चल रहे इन बच्चों की चंचलता को तो ईश्वर भी नहीं झुठला सकते ।
बौद्ध की विशाल प्रतिमा का दर्शन कर हम जल्दी बाहर आ गये ताकि हमारी वजह से वे बाधित ना हो । प्रांगण से चारो ओर का दृश्य बहुत मनोरम था,हम सब फोटो खींच रहे थे,तभी सारे लामा बाहर आ गये,नन्हे लामा अब खुल के खिलखिला रहे थे, मैने उनके फोटोग्राफ्स लिए और हम वहाँ से निकल आये क्योकि अब हमे झील पर जाना था ।
उतरते वक्त हमने सीढ़ियों वाले रास्ते को नजरअंदाज किया ।झील थोड़ी दूर थी लेकिन हम बतियाते हुए निकल आए ,रास्ते के सुंदर नजारों को अपने कैमरे और अपनी यादों में सहेजते हुए । राह में हमे एक नन्हा सा बच्चा दिखा , जिसे देखते ही बिटीया ने गोद में उठा लिया और फोटो खिचंवाने लगी....बच्चा वाकई बहुत प्यारा था ।
अब हम झील की तरफ थे ।झील के दोनो किनारों को एक पुल से जोड़ा गया था । यह स्थाप्त्य कला का बेजोड़ नमुना भी था । हमने पैदल चल कर झील का चक्कर लगाया जो कि घने पेड़ों से घिरी थी ।मैने पेड़ों के आस पास बहुत सारी फोटो खिंचवाई और उस वक्त ७० के दशक की फिल्में जैसे मुझसे रूबरु हो रही थी ।
दोपहर के खाने का समय हो रहा था और हमे दार्जिलींग के लिए भी निकलना था इसलिए हम वापस होटल आ गए । खाना खाने के बाद हम " इनोवा" गाड़ी से रवाना हो गए ।रास्ते में हमे "नेपाल बोर्डर" पर रुकना था ।
दो घंटे बाद हम बोर्डर पर पहंुच गये, स्थानिय टैक्सी से हम नेपाल गये,जहाँ से हमे "शाॅपिंग" करनी थी ।रौनक बहुत खूश था,उसने फटाफट मोबाईल में नेपाल का लोकेशन डाला (जैसा कि आजकल की पीढ़ी करती है..... Status update ) ।हमने वहाँ से जूतें और कपड़ें खरीदे , मौसम के मिजाज को समझते हुए हम टैक्सी की ओर दौड़ पड़े,रास्ते में आंटी को दुकान वाले से उलझते हुए देखा ।
हम गाड़ी में बैठ गये,ट्यूर मैनेजर हमारी गाड़ी में ही था,मौसम खराब हो चला था , मैनेजर आंटी पर चिल्ला रहा था । उसकी चिंता जायज थी,उम्र के इस पड़ाव पर सतर्क रहना सही रहता है ।
- रात के खाने के समय तक हम दार्जिलींग के पास " घुम" नामक जगह पर अपने होटल में पहंुच चुके थे । मौसम खराब था और बच्चों को फिर से अच्छा नहीं लग रहा था ।रात को हम सबने कुछ मजेदार खेल खेले,जिसमे मैं जीती ।अब बच्चों ने खुब मजा़ लिया ।ट्यूर मैनेजर रौनक के साथ बहुत घुलमिल गया था। एक बार फिर,खाना बहुत लजीज़ था ।रात को "ज्योतिष" (ट्यूर मैनेजर का सहयोगी) मसाला दुध लेकर आया ,दार्जिलींग की ठंड में मुझे इसकी जरुरत भी थी ।
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