सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कोरा कागज

कुछ खास नहीं
आज लिखने को 
तो सोचा 
चलो समय के कागज पर 
कलम को अपनेआप ही चलने दूं 
अपनी ही लेखनी को एक नया आयाम दूँ 
दिल और दिमाग  पर छाये शब्दों को 
अस्त-व्यस्त ही सही 
लेकिन बहने दूं 
शायद कविता ना बन पाए 
शायद अक्षर मोती से ना  सज पाए 
लेकिन 
चलने दूं 
लेखनी को 
अपनी ही रफ़्तार में 
लिखने दूं 
कुछ शब्द अपनी ही जिंदगी की किताब के 
लेकिन ये क्या ?
कुछ कडवे पर सच्चे शब्द 
उड़ गए वक़्त की आंधी में , किसी पाबंदी में 
निकले थे जो दिमाग  के रस्ते से 
और कुछ भावुक शब्द 
पिघल गए अपनी ही गरमी से 
धुल गए आंसुओं से 
जो निकले थे सीधे दिल से 
और................................
मेरी लेखनी को आयाम नहीं 
सिर्फ विराम मिला 
और मेरा कागज जो कोरा था 
कोरा ही रह गया 

टिप्पणियाँ

  1. शनिवार 07/07/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है . धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. बड़ा मुश्किल है भावों को शब्द दे पाना .... अक्सर ऐसा भी होता है...

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रभावशाली लेखनी कई बार रुक जाती है ...

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी लेखनी को आयाम नहीं
    सिर्फ विराम मिला
    और मेरा कागज जो कोरा था
    कोरा ही रह गया

    bahut sundar abhivyakti ...!!
    shubhkamanaye

    जवाब देंहटाएं
  5. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |

    जवाब देंहटाएं
  6. कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-

    जवाब देंहटाएं
  7. हमारी टिप्पणी कहाँ गयी..........

    चलिए फिर कहती हूँ....
    सुन्दर भाव ..सुन्दर रचना...
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  8. Jeevan ki kitab se agar kaduve shabd nikal saken ... Bhavnayen bah saken ... Aseem shanti ka korapan mil jaye to nirvana ki sthiti aate der nahi .... Gahre bhav liye hai aapki rachna ...

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत अच्छी प्रस्तुति संगीता जी लेखन एक अनवरत शोध है अन्वेषण है लिखना एक अन्वेषी की तरह है प्रोब है .कृपया दिमाक की जगह दिमाग कर लें.सादर नमन .

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

किताब

इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है।      मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद।      किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है।        हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ।        धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प