याद आ रहा है वो गुजरा जमाना
बेफिक्री से जीना और खुशियों को पिरोना
ना खोने का गम ना पाने की खुशी
बस, हर एक पल को जीना
याद आ रहा है वो गुजरा जमाना
बहनों से बतियाना, सहेलियों संग चहचहाना
कभी रस्सी कुदना,तो कभी गट्टें खेलना
कभी दस कद़मों के दरमियां
दुनियाँ भर की बातें कर लेना
तो कभी कॉलेज तक के
दो किलोमीटर की राह को दस कदमों मे लांघ जाना
याद आ रहा है आज, वो गुजरा जमाना
गरमीयों की दुपहरी रुहअफ़जा का पीना
सर्दीयों मे धुप का सेंकना
तो सावन में बारीश के रुकने का इंतजार करना
मिट्टी में से नन्ही लाल तीजों का रस्ता तकना
कभी छत पर सप्तऋषि को ढ़ुंढ़ना
तो कभी रजाई में दुबक जाना
सच,याद आ रहा है गुजरा जमाना
आँखों में आ जा रहे है
दीवाली के दिये
जो सजते थे मेरे बचपन वाले घर में
होली के ढप
जो बजते थे मेरे शहर की गलीयों में
सावन के झुलें
जो लगते थे घर के पीछे वाले पेड़ की डाल में
सिंझारों पर झरता था प्यार
तो राखी पर भरता था गुल्लक
ना क्रिसमस जानते थे,ना वैलेन्टाईन्स डे
ना दोस्ती का कोई दिन था,ना खेलने का कोई टाईम था
ना ही हाईजीनिक समझते थे
नीचे गिरी चीज को बस थोड़ा सा
पौंछ के हम खा लेते थे
इम्तिहान से डरते थे लेकिन डिप्रेशन नहीं जानते थे
ना मोबाईल था,ना कम्प्युटर
ना ही हॉटलों में पार्टी मनाते थे
बड़े बुजुर्गों की छांव में
हम तो अपना हर दिन मनाते थे
सच, कितने खुश थे हम
शायद इसीलिये
याद आ रहा है आज गुजरा जमाना
बेफिक्री से जीना और खुशियों को पिरोना
ना खोने का गम ना पाने की खुशी
बस, हर एक पल को जीना
याद आ रहा है वो गुजरा जमाना
बहनों से बतियाना, सहेलियों संग चहचहाना
कभी रस्सी कुदना,तो कभी गट्टें खेलना
कभी दस कद़मों के दरमियां
दुनियाँ भर की बातें कर लेना
तो कभी कॉलेज तक के
दो किलोमीटर की राह को दस कदमों मे लांघ जाना
याद आ रहा है आज, वो गुजरा जमाना
गरमीयों की दुपहरी रुहअफ़जा का पीना
सर्दीयों मे धुप का सेंकना
तो सावन में बारीश के रुकने का इंतजार करना
मिट्टी में से नन्ही लाल तीजों का रस्ता तकना
कभी छत पर सप्तऋषि को ढ़ुंढ़ना
तो कभी रजाई में दुबक जाना
सच,याद आ रहा है गुजरा जमाना
आँखों में आ जा रहे है
दीवाली के दिये
जो सजते थे मेरे बचपन वाले घर में
होली के ढप
जो बजते थे मेरे शहर की गलीयों में
सावन के झुलें
जो लगते थे घर के पीछे वाले पेड़ की डाल में
सिंझारों पर झरता था प्यार
तो राखी पर भरता था गुल्लक
ना क्रिसमस जानते थे,ना वैलेन्टाईन्स डे
ना दोस्ती का कोई दिन था,ना खेलने का कोई टाईम था
ना ही हाईजीनिक समझते थे
नीचे गिरी चीज को बस थोड़ा सा
पौंछ के हम खा लेते थे
इम्तिहान से डरते थे लेकिन डिप्रेशन नहीं जानते थे
ना मोबाईल था,ना कम्प्युटर
ना ही हॉटलों में पार्टी मनाते थे
बड़े बुजुर्गों की छांव में
हम तो अपना हर दिन मनाते थे
सच, कितने खुश थे हम
शायद इसीलिये
याद आ रहा है आज गुजरा जमाना
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