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मैं जीना चाहती हूँ

जीने दो मुझे इंसान की तरह 
क्योकि 
कहते हो अन्नपुर्णा 
और नोचते हो बोटी-बोटी 
दुर्गा कहकर सर नमाते हो 
और दुसरे ही पल 
एक राह चलती दुर्गा को 
पावँ तले रौंदते हो 
महान तो बताते हो 
लेकिन इंसान बनकर जीने नहीं देते हो 
तुम्हारे हौसलें है बुलंद 
क्योकि सदियों से तुमने लूटा है हमारा तन मन 
कभी द्रौपदी को छला 
तो कभी सीता की ली अग्निपरीक्षा 
राधा को तो तुमने कही का ना छोड़ा 
जीवन भर प्यासी प्रेयसी बनाकर 
दिल उसका तोडा 
लेकिन ;
फिर से चली चाल,बहलाया ,फुसलाया 
कृष्ण से पहले राधा का नाम लगाया 
लेकिन सोचा है कभी 
अरे! सोलह हजार रानियों में 
एक भी राधा का नाम क्यों ना आया 
फिर भी तुम देव हो 
क्योकि तुम एक मर्द हो 
यही तो होता आया है सदियों से 
छला गया हमेशा छल-प्रपंच से 
ना जाने क्यों 
तुम्हारा मन तुम्हे नहीं धिक्कारता 
करते हो ऐसे कुकर्म 
कि माँ के दूध को भी आती है तुम पर शर्म 
नारी हूँ मैं नीर नहीं 
कि सिर्फ बहना ही जिसका काम है 
मुझे महान मत बनाओ 
इज्जत दो अपनी नज़रों में थोड़ी 
इंसान हूँ, इंसान की तरह रहने दो 
देवी ना बनाओ 
खौलता है खून मेरा,कापतीं है रूह 
तार-तार शरीर से रिसता है खून 
छलनी हुए दिल से छन गई सारी भावनाएं 
मेरे पीर को तुम कभी समझ ना पाए 
लेकिन अब ;
जीना है मुझे बिना किसी सहारे 
उड़ना है आसमां में पंख पसारे 
बहुत देखा तुम मर्दों को 
अब नहीं सहना तुम्हारी शर्तों को 
क्यों वो पहने , जो तुम चाहो 
क्यों उठे ,बैठे और चले तुम्हारे हिसाब से 
और क्यों सहे तुम्हारी बंदिशों को
अब ; 
नहीं चाह तुम्हारे साथ की 
तुम्हारे समकक्ष ही नहीं 
तुम्हारे वजूद और तुम्हारे अक्स से 
ऊपर है मुझे जाना 
जो चाहुगी अब वो है मुझे पाना  
क्योकि ; 
जीना है मुझे एक इंसान की तरह 

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पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

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