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सहजता

                                                            'सहज' एक संस्कृत शब्द है,जिसका मतलब होता है 'प्राकृतिक' या फिर जो बिना प्रयास के किया जाये......तात्पर्य है कि जो अपने आप व्यक्त हो जाये वह सहजता है। इसे हम स्वाभाविकता भी कह सकते है....... स्व के भाव के अनुकूल जो, वो स्वाभाविक अर्थात सहज। सहजता एक नैसर्गिक गुण है जिसे हम मन के किसी कोने में दबा देते है........ कभी अधिक परिपक्व दिखने की चाह में तो कभी कुछ समझ ना पाने की वजह से........ और तब सब नाटकीय हो जाता है और बस, वही से जद्दोजहद शुरू हो जाती है खुद से खुद की।समझदार दिखने का लोभ हमे असहज बना देता है और चालाकियाँ स्वत: ही दस्तक देने लगती है।                  कभी देखा है किसी फुल को खिलने के लिये प्रयास करते हुए,वो सहज ही खिल जाता है,बिल्कुल इसी तरह नदी सहज ही बहती रहती है बिना किसी प्रयास,सुरज हर रोज सहज ही उदय अस्त होता रहता है,और तो और हमारे जीवन का आधार हमारी सांसे भी तो सहज ही आती जाती रहती है बिल्कुल सहजता से,तो फिर हम क्यो अपने आप को असहज बनाये जा रहे है आगे बढने की होड़ में............ यकीन मानीये,

मिश्री की डली

मन की ज़मीं पर कुछ नमक की डलियाँ थी ना जाने  कब आई कहाँ से आई पता ही नहीं चला कब मैं इस  नमकीन से स्वाद को अपनी नियती  मान बैठी लेकिन अबकि, जब बरसा पानी जम के ये नमकीन सी डलियाँ क़तरा सा पिघली एक दिन  दो दिन तीन दिन हफ़्तों तक बरसता रहा पानी नमी पाकर नमक भी पिघल गया पूरा का पूरा और जब धुप निकली तो ना नमक था  ना कोई निशाँ ठंडी हवा ने मन को छुआ दिल खिल गया ना जाने कहाँ से ये हवा ले आई  एक बीज नन्हा सा और  गिरा दिया मन की ज़मीं पर अब नमकीन डलियों की जगह कुछ अंकुरित होगा मीठा सा.... बिल्कुल मिश्री की डली सा

परवरिश

                मैं राह ही देख रही थी कि पौने दस के करीब डोरबेल बजी..... मेरा अनुमान सही था,वो दुर्गा ही थी। मैंने देर से आने का कारण पुछा तो वही रोज की वजह.......माँ-बाप का झगड़ा और गंदी परवरिश से पिसते बच्चें।                      दुर्गा........ सोलह सत्रह साल की गोरी जवान और खुबसूरत सी लड़की, जो पिछले कुछ दिनों से मेरे घर काम करने आ रही थी। छ: बहन भाईयों में दुर्गा दुसरे नम्बर पर थी,पहले नम्बर पर एक आवारा भाई था जो तकरीबन पूरी तरह से बिगड़ चुका था। तीसरे नम्बर की बहन का नाम शारदा था जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, चौथे नम्बर का भाई छठी में था और दो छोटी बहनें जो अभी स्कुल नहीं जाती थी।            एक बार दुर्गाष्टमी के दिन मैंने उसकी दोनो छोटी बहनों को खाने पर बुलाया था,वो दोनो इतनी सुंदर बच्चियाँ थी कि मैं मंत्र मुग्ध सी हो गयी....... भगवान ने चारों बहनों को रूप रंग देने में कोई कोर कसर ना रखी थी।  दुर्गा ने दसवीं तक पढ़ाई की थी और अक्सर मुझसे कहती थी कि,             "दीदी,मुझे आगे पढ़ना है, लेकिन मेरा बाप मुझे बीयर बार में काम करने को बोलता हैं।"    मैं सकते में आ

हाँ,मैं रजस्वला हूँ

मैं वर्जित हूँ क्योकि मैं रजस्वला हूँ यूँ तो मै घर की धुरी हूँ लेकिन  'उन दिनों' मैं घर से ही वंचित हूँ वर्जनाओं  के ताने बाने से बुने उन दिनों में  मैं सहमी सी रहती हूँ लेकिन कभी कभी वर्जनाओं से पार  जाकर भी देखा हैं मैंने अचार कभी भी ख़राब नहीं हुआ यक़ीन मानिये मैंने हाथ लगाकर देखा हैं मुझे याद हैं वो शुरुआत के दिन जब नासमझी में मैंने मंदिर में प्रवेश कर लिया था यक़ीन मानिये  भगवान बिल्कुल भी रूष्ट नहीं हुए थे हाँ, घर के रूष्ट लोगो ने वर्जनाएँ लाद दी थी मुझ पर तब से लेकर आज तक 'उन दिनों' वर्जित हूँ मैं हर जगह किसने बनाया ये नियम ? शायद पुरूषवाद ने ! लेकिन  सुनो पुरूषवाद ग़र तुम रजस्वला होते तो क्या वर्जित रहते ?  क़तई नहीं ! तुम कहते कि हम पवित्र है क्योकि हम प्रत्येक माह शुद्धीकरण की प्रक्रिया  से जो गुज़रते हैं 

पिता

पिता सिर्फ पिता होते हैं एक समय में एक ही किरदार होते हैं वे पूरी तरह से सिर्फ पिता होते हैं वे पिघल के बरसते नहीं हैं बहुत कुछ सहते हैं लेकिन  कभी कुछ भी  कहते नहीं हैं पिता सिर्फ पिता होते हैं उन्हे लोरी नहीं आती सुलाने को लेकिन बातें सार्थक आती हैं आँखें खोल दुनियाँ दिखाने को माँ मारती हैं धरती को जब ठोकर खाकर गिर जाते हैं लेकिन  पिता.... ठोकर खाकर सँभलना सीखाते हैं वे मौन रहते हैं हमारे सपने सजाते हैं आँखों में अपनी भविष्य हमारा  बुनते हैं पिता  सिर्फ पिता होते हैं जीवन भर एक ही किरदार में होते हैं लेकिन  जब हाथ छोड़  चली जाती हैं 'माँ' तो  ये पिता माँ भी बन जाते हैं 

कौसानी

घुमावदार रास्तें स्वागत करते लम्बें पेड़ अपनी ओर बुलाते पहाड़ लगातार बोलते झिंगुर चहचहाते पक्षी क्या कोई इसका सानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी है  दूर से छुप छुप लुभाता हिम गरजते बादल कड़कती बिजली  जम के बरसने को आतुर  मौसम ये रोमानी हैं  जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं शांत,नीरव, मनभावन हवा में कैसा जादू हैं भीगे मन,भीगे तन पत्ते पत्ते में संगीत हैं सुबह है सुंदर तो रैना भी दीवानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं अलसुबह की किरणें हिम पे जा गिरती भुला देती सुध बुध लेकिन  उड़ते आवारा ये बादल ढ़क देते इसकी सुनहरी छँटा  ये बात कितनी बेमानी हैं जी हाँ, शहर ये कौसानी हैं।

चिढ़ते रहो

तुम चिढ़ते हो मुझसे  या  मेरे वजूद से.....नहीं पता लेकिन जब भी मैं  कुछ नया करती हूँ तुम्हारा अहम चोट खाता हैं मैंने महसूस किया हैं तुम्हारी जलन को तुम्हारी प्रतिद्वन्दता को तुम्हारी बेवजह की तर्कशक्ति को हाँ..... ये सच हैं कि तुम कहते कुछ नहीं लेकिन  घुमा फिरा कर आग ही तो उगलते हो जानते हो तुम ? उस आग में  झुलस जाती हूँ मैं और फिर... अपने फंफोलों को सहलाते सहलाते मैं फिर कुछ रच देती हूँ और पुन:  तुम जैसे लोग  मेरी अच्छी 'क़िस्मत' पर बधाईयाँ देने पहुँच जाते हैं और मैं..... मुस्कुरा देती हूँ..... उन फंफोलों को देखकर  जो शायद तुमने नहीं देखे मैंने सहयोग नहीं माँगा संदेह नहीं तुमने कभी दिया भी नहीं  मैंने हमेशा तुम्हारा हौसला बढ़ाया लेकिन.... तुमने मुझे कभी सराहा नहीं और  यही सराहने की चाहत मेरे वजूद को ठोस करती गयी इसलिये..... मुझे  मन ही मन  ना चाहने वालों शुक्रिया तुम सभी का क्योकि  ये तुम्हारी चिढ़ ही हैं जो रंग ला रही हैं  #चिढ़ते_रहो 

मन की करने दो ना

तुम चाहते क्या हो ? मैं हमेशा खुश रहूँ ? या खुश दिखूँ तुम ही बताओ जब अंदर पतझर हैं तो बाहर बसंत कैसे बिखेरू मैं ? बरसना चाहती हैं आँखें घुट जाता है गला मेरा तो अपनी सिसकियों को क्यो अंदर ही अंदर समाहित करू मैं ? जब उदास हैं मन बैचैन हैं किसी अपने की याद में तो क्यो तुम्हारे  साथ बैठकर ठहाके लगाऊ मैं ? माना कि तुम मेरा ध्यान रखते हो बस, यही गड़बड़ हैं क्योकि मेरी परवाह तुम्हारे दायरों तक सीमित हैं मुझे अपना ध्यान खुद रखने दो ना मैं खुश रहुंगी बस, अपने मन की करने दो ना

भ्रम

इन दिनों मन विचलीत सा है चंचल सा रहने वाला ये मन ना जाने क्युँ बेचैन सा है एक तस्वीर सी उभरती है दिलो दिमाग़ में जो कई सवाल खड़े करती है कुछ गफ़लत सी छाई रहती है कुछ समझ सकूँ  उससे पहले धुँधला जाती है वो तस्वीर असमंजस में हूँ कि परिस्थितियों का एक सिलसिलेवार क्रम है या फिर सिर्फ मेरे मन का भ्रम है  मानती हूँ कि मेरी छठी इन्द्रिय  हैं कुछ ज्यादा ही सक्रिय इसीलिये भ्रम मात्र तो मान नहीं सकती सच हो नहीं सकता कश्मकश में है मन सोच रही हूँ वक़्त पर सब छोड़ दूँ समय की आँधी  धुँधलका हटा देगी और  तस्वीर खुद-ब-खुद साफ़ दिख जायेगी तब तक  ऐ जिन्दगी !  तु और मैं गफ़लत में ही सही थोड़ा जी लेते है।

गुजरा जमाना

याद आ रहा है वो गुजरा जमाना बेफिक्री से जीना और खुशियों को पिरोना ना खोने का गम ना पाने की खुशी बस, हर एक पल को जीना याद आ रहा है वो गुजरा जमाना बहनों से बतियाना, सहेलियों संग चहचहाना कभी रस्सी कुदना,तो कभी गट्टें खेलना कभी दस कद़मों के दरमियां दुनियाँ भर की बातें कर लेना तो कभी कॉलेज तक के दो किलोमीटर की राह को दस कदमों मे लांघ जाना याद आ रहा है आज, वो गुजरा  जमाना गरमीयों की दुपहरी रुहअफ़जा का पीना सर्दीयों मे धुप का सेंकना तो सावन में बारीश के रुकने का इंतजार करना मिट्टी में से नन्ही लाल तीजों का रस्ता तकना कभी छत पर सप्तऋषि को ढ़ुंढ़ना तो कभी रजाई में दुबक जाना सच,याद आ रहा है गुजरा जमाना आँखों में आ जा रहे है दीवाली के दिये जो सजते थे मेरे बचपन वाले घर में होली के ढप जो बजते थे मेरे शहर की गलीयों में सावन के झुलें जो लगते थे घर के पीछे वाले पेड़ की डाल में सिंझारों पर झरता था प्यार तो राखी पर भरता था गुल्लक ना क्रिसमस जानते थे,ना वैलेन्टाईन्स डे ना दोस्ती का कोई दिन था,ना खेलने का कोई टाईम था ना ही हाईजीनिक समझते थे नीचे गिरी चीज को बस थोड़ा सा पौं

बसंत

इन फिरंगियों ने तो सिर्फ एक दिन को मोहब्बत के नाम किया था लेकिन हम हिन्दुस्तानियों ने तो पुरा वैलेन्टाईन वीक बना डाला और ना जाने किन किन दिनों का आविष्कार कर डाला जिसे शायद फिरंगी देशों में मनाया भी ना जाता हो ।          इस पुरे वीक को मनाने के चक्कर में हम एक ऐसी जम़ात तैयार कर रहे है जिसे ना तो 'बसंत पंचमी' का पता है और ना ही ' बसंत ' के मर्म का ।            बसंत......एक ऋतु ,जो अपने आप महसुस हो जाती है, जनवरी जाते ही फरवरी की गुलाबी सर्द हवाएँ एक दस्तक देती है , एक रुमानियत की , हवा में एक कशिश होती है , पेड़ों के पत्ते तक सज संवर उठते है , धुप भी मीठी सी लगती है ,बड़े होते दिन और छोटी होती रातें तरोताजा कर देती है, पक्षी भी चहक उठते है, सरसों की फसल झुमने लगती है और उस पर पड़ने वाली सुबह की किरणें सब कुछ धानी धानी कर देती है , यह आगाज़ होता है ऋतुराज का, शायद इसीलिये श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि ऋतुओं में मैं बसंत हुँ ।          यह प्यार का मौसम है जनाब, लेकिन सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिये नहीं ,बसंत एक उत्सव है जिसमे नवजात से लेकर वयोवृद्ध तक शामिल होते है, औ