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कैंसर

यह तो जानती थी मैं
कि जिन्दगी एक उलझी हुयी पहेली है
अक्सर,अपने ख़ाली वक़्त में
मैं इसे सुलझाया करती थी
लेकिन यह क्रूर और निष्ठुर भी है
नहीं था मुझे ये अनुमान
हर बार यह एक नया रूप लेकर आती है
कभी हँसाती है तो कभी रूलाती है
लेकिन बहुत फ़र्क़ है महसुस करने में
और इसकी कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने में
सच कह गये कबीरदास
जाके पैर फटी ना बिवाई वो क्या जाने पीर पराई
अपनी ही बिवाई से आज आँख मेरी भर आयी
जिसने जीवन दिया उसी के जीवन पे आँच है आयी
मिठास के ताने बाने से बुनी थी मेरी जिन्दगी
कि एक भयावह शब्द का फन्दा एेसा उलझा
उधड़ गया मेरा ताना बाना
दे गया एक ऐसा दर्द
जो अब तक था मुझसे अनजाना
हौसलों की धूप में
उम्मीदों की छाँव लिये
चलती जा रही हुँ मैं
कभी देवालयों में तो कभी गूगल की गलियों में
तलाश रही हुँ अमृत पान
ढ़ुंढ़ रही हुँ तुझे
ऐ जिन्दगी
कभी मन्नत के धागों में
कभी माँ अँजनी के लाल में
कभी कृष्ण की मुरली में
तो कभी अपने ही दृढ़ विश्वास में
क्योकि जिस किसी ने भी हिम्मत हारी
तु है उन सब पे भारी
अपने इरादों पे मुझे संशय नहीं
तेरी परीक्षाओं से भी मुझे भय नहीं
जिन्दगी,तु तो मेरे लिये
माथे पे सजा चंदन है
नित नित तेरा वंदन है
मेरी माँ के आँगन
तेरा सदैव अभिनंदन है ।

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