सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ

संदेह के बादलों से भय की हो रही है बारिश चू रही है छत सील रहा है सब कुछ बन रही है चिन्ता की रेखायें मेरे ललाट के आस पास लेकिन मन के एक कोने में दूर कही सुनहरी धूप खिलने को है जो हटा देगी घने बादलों को रोक देगी बरसते पानी को क्योकि एक नया इंद्रधनुष बनने को है फिर भी ना जाने क्यो अनजाना सा लग रहा है क़यास कभी बिखर तो कभी बंध रही है मेरी आस मन ही नहीं अब तो मेरी चौखट भी रहने लगी है उदास क्योकि पल पल कर रहा है छलनी मुझे मेरी माँ को खोने का अहसास

कैंसर

यह तो जानती थी मैं कि जिन्दगी एक उलझी हुयी पहेली है अक्सर,अपने ख़ाली वक़्त में मैं इसे सुलझाया करती थी लेकिन यह क्रूर और निष्ठुर भी है नहीं था मुझे ये अनुमान हर बार यह एक नया रूप लेकर आती है कभी हँसाती है तो कभी रूलाती है लेकिन बहुत फ़र्क़ है महसुस करने में और इसकी कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने में सच कह गये कबीरदास जाके पैर फटी ना बिवाई वो क्या जाने पीर पराई अपनी ही बिवाई से आज आँख मेरी भर आयी जिसने जीवन दिया उसी के जीवन पे आँच है आयी मिठास के ताने बाने से बुनी थी मेरी जिन्दगी कि एक भयावह शब्द का फन्दा एेसा उलझा उधड़ गया मेरा ताना बाना दे गया एक ऐसा दर्द जो अब तक था मुझसे अनजाना हौसलों की धूप में उम्मीदों की छाँव लिये चलती जा रही हुँ मैं कभी देवालयों में तो कभी गूगल की गलियों में तलाश रही हुँ अमृत पान ढ़ुंढ़ रही हुँ तुझे ऐ जिन्दगी कभी मन्नत के धागों में कभी माँ अँजनी के लाल में कभी कृष्ण की मुरली में तो कभी अपने ही दृढ़ विश्वास में क्योकि जिस किसी ने भी हिम्मत हारी तु है उन सब पे भारी अपने इरादों पे मुझे संशय नहीं तेरी परीक्षाओं से भी मुझे भय नहीं जिन