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पश्चिम बंगाल और सिक्कीम की मेरी यात्रा


मैं बहुत उत्साहित थी,अपनी इस यात्रा को लेकर । पूरे दो सालों के बाद , फुर्सत के कुछ पल जूटा पाई थी मैं । हालांकि लेह की यादें अभी भी मेरे जेहन में ताजा थी,लेकिन एक नया पड़ाव मुझे अपनी ओर खींच रहा था ।
       २१अप्रेल की हमारी "बुकिंग" लगभग तीन महीनों पहले हो चुकी थी। हमारी तैयारियाँ भी काफी समय पहले शुरु हो चुकी थी.....और फिर मुम्बई की चिपचिपाहट वाली गरमी भी जैसे हमे किसी पर्वतीय स्थल पर धकेल रही थी......।

२१अप्रेल :- हमारा "ट्यूर" बागडोगरा से प्रारम्भ हुआ। मुम्बई से बागडोगरा की हमारी यात्रा दो चरणों में पूरी हुई.....। सुबह करीब साढ़े तीन बजे हम घर से निकले.... हवाईअड्डे की औपचारिकताओं को निपटा कर छः बजे हमने उड़ान भरी,आठ बजे तक हम दिल्ली पहुंचे और दुसरी हवाईयात्रा का इंतजार करने लगे,जो कि ११ बजे की थी । दिल्ली हवाईअड्डे की खुबसूरती निहारने में कब ११ बज गये पता ही नहीं चला ।अब हम हमारे गंत्व्य स्थल की यात्रा की ओर अग्रसर थे.....और १२:३० पर हम बागडोगरा हवाईअड्डे पर खड़े थे ।
       हमारा "ट्यूर मैनेजर" हमारे स्वागत के लिए पहले से ही वहाँ मौजूद था ..... एक मिनी बस हमारे इंतजार में थी । हम गरमी से व्याकुल हो रहे थे,दूसरे साथी यात्री अभी आने बाकी थे.....।दो सहयात्री आ चुके थे....दोपहर के खाने का समय हो चुका था.... पेट में धमा-चौकड़ी मचा रहे चुहों की फौज ने हमे जल्दी ही खाने के पास पहुंचा दिया । हमारे खाना खाने के दौरान ही बाकी सहयात्री भी आ चुके थे । ५-६ बजे के करीब हमने मिरिक की ओर प्रस्थान किया ।हम ३५ के समूह में थे और दो बसों में थे ।
                  यात्रा के चलते ही गरमी हाथ छुड़ा के भाग गई और मंद बयार मेरे बालों के साथ खेलने लगी । हम दोनो पास पास बैठे थे , और लड़ाई झगड़े के चलते दोनो बच्चें मुँह फुलाकर अलग अलग कोनों में बैठ गये । 
                            जैसे जैसे हम ऊपर की ओर चढ़ते गये,मौसम खराब होने लगा ।मेरे पास वाली सीट पर दो आंटी बैठी थी, ६०-७० की उम्र की इन महिलाओं का जज्बा़ देखकर मैं स्तब्ध थी,और पूरे "ट्यूर"के दौरान कई बार मैने उनके जज्बें को सलाम किया ।
               ट्यूर मैनेजर से मिरिक के बारे में जानकारी लेते हम आगे बढ़ रहे थे ।यह पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले की एक छोटी सी सैरगाह है,जो समूद्रतल से ५८०० फीट की ऊँचाई पर स्थित है ।बातों-बातों में पता ही नही चला कि बाहर अंधेरा घिर आया है और मौसम अलमस्त हो पूरा बिगड़ने के अंदाज में था । घना कोहरा,घूप्प अंधेरा,पतली सी सड़क जिसे पगडंडी ही कहे तो ज्यादा उचित होगा,टेढ़े-मेढ़े रस्ते और झमाझम बरसात..... कूल मिलाकर हाॅरर फिल्म के बैकग्राउंड सीन जैसा दृश्य था..... मैने बच्चों को संभाला जो अकेले बैठे थे....शगुन एकदम आगे बैठी थी,उसके पापा उसके पास बैठ गये और मैं रौनक के पास ।
         धीरे-धीरे सब चूप हो गये ।एक सन्नाटा सा पसर गया बस में,जिसे बिजली की तेज गड़गड़ाहट बीच बीच में तोड़ देती थी ।घने कोहरे में हमे कुछ नहीं दिख रहा था लेकिन फिर भी हमारा ड्राईवर बड़े ही आत्मविश्वास से बस चला रहा था,वो भी फोन पर बतियाते हुए...बड़ी कोफ्त हुई थी इन मोबाईल फोन बनाने वालों पर ।बारिश तेज हो चली थी...... बल्कि भयकंर बरसात में तब्दील हो चुकी थी......कि तभी एक चमकती हुई विद्यूत रेखा पूरे अट्टाहस के साथ बस के एकदम पास से नीचे चली गई...... हम सब सकते में आ गये ,अब तो हर दूसरे तीसरे मोड़  पर ये विद्यूत रेखा हमसे मिलने आती रही,उस रेखा की रोशनी में मैने आस पास वालों के चेहरे देखे,जो कुछ डरे हुए प्रतीत हुए ।ड्राईवर अब भी फोन पर बात कर रहा था..... इसलिए हम सब और भी सतर्क थे,बस का वाईफर भी काम नहीं कर रहा था.......और उस पर घना कोहरा ।सब जैसे बुत बन गये थे,खिड़की के बाहर देखो तो कलेजा मुहँ को आता था.......वैसे भी सबकी नजर ड्राईवर पर ही लगी थी,.और जब कभी सामने से दूसरा वाहन आ जाता था तो मुझे हमारा ड्राईवर हनुमान सा लगने लगता ।देवों के देव,सबके रक्षक हनुमान स्वतः ही मेरे मन पर हावी हुए जा रहे थे,और शायद सभी के मनों पर ।
                                                 मुझे अपनी यह यात्रा बिगड़ते मौसम के आगे बली चढ़ती सी लगने लगी ।बस प्रभु स्मरण के साथ सकुशल होटल पहुंचने की इच्छा ही अधिक बलवती थी । रौनक ने मुझसे पूछा कि हम ऐसी जगहो पर ही घूमने क्यो आते है, गुजरात,राजस्थान और केरल क्यों नही जाते ? ....और मैं बस मुस्कूरा दी.....

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