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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नासूर

बात कुछ दिन पहले की है  चोट लगी थी हाथ पर  हलकी सी चोट थी  इसलिए मैं मौन थी  ना दर्द था, ना दर्द का अहसास  कुछ दिन बाद  फिर चोट लगी  उसी स्थान पर  थोड़े समय दर्द हुआ  मैं मुस्कुराकर रह गई  बात आई-गई हुई  मैं अपने कामो में व्यस्त हुई  अचानक ; एक दिन फिर वही दुखती नस  पुनः दबाव में आई  इस बार हलकी सी आह भी बाहर आई  मैंने भुलाने की कोशिश की  लेकिन इस बार  दर्द कुछ ज्यादा था  शायद मेरी सहनशक्ति की परीक्षा थी  जीवन की प्राथमिकताओ की समीक्षा थी  थोडा समय लगा दर्द भुलाने में  अपनों के घावों को  सहलाते-सहलाते  मरहम लगाते , अपने ही घाव की सुध-बुध ना रही  शायद इसीलिए  कल बिना चोट के ही  दुखने लगा हाथ, नसें बुदबुदाने लगी  रक्त दर्द से उबाल खाने लगा  देखा , तो हाथ में नासूर बन चूका था  चुक गई मैं, भूल गई मैं  चोट पे चोट सहती गई  बेवजह यूं ही बहती गई  पहली चोट पे संभली होती  ना होता नासूर  और ना मिलता दर्द बिना कसूर 

कुछ क्षणिकाए

   जलना  आग में और इर्ष्या में  कारण है विनाश का सर्वनाश का !                                                            चुप्पी   चटकाती है दिल  रिश्ते मरते तिल-तिल  ! सूरज  तुम्हारे नाम का  मेरे ललाट पे सज  मान बढाता तुम्हारा और मेरा भी ! मैं आहत होती हु  अपनों के रूखे व्यवहार से नहीं  बल्कि चाशनी में लिपटी उनकी बातों से !              अपनों का साथ       है खुशियों का तडका         दुखो की दाल में !     धुँआ धुँआ  है जिंदगी  जब जल रहे हो  रिश्ते आस पास 

उषा आगमन

निशा ने पलके झपकाई ,  उषा ने ली अंगडाई चकोर ने गर्दन झुकाई ,  उत्पल मुख मुस्कुराहट आई  आदित्य अंशु ने बिखराई पाँखे चंचल विहगों ने खोली आँखे  पीपल के पत्तो पर पड़े हिमकण रश्मि आभा पा हुए मोती विलक्षण  पुलकित पुलकित हुआ मनु-पुत्र  पाया जब उसने एक और नया विकल्प  आदित्य ने फैलाया अनुपम आलोक  स्वर्णिम स्वर्णिम लगे तब मन्दाकिनी तोय  वाणी ने किया वीणा को झंकृत  तब सरगम से हुई पृथ्वी अलंकृत